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नये पड़ोसियों से मेल-जोल
 


मुन्शी सञ्जीवनलाल का कुटुम्ब बड़ा न था। सन्तानें तो ईश्वर ने कई दी, पर इस समय माता-पिता के नयनों की पुतली केवल एक पुत्री ही थी। उसका नाम 'वृजरानी' था। वही दम्पति का जीवनाश्रय थी।

प्रतापचन्द्र और वृजरानी में पहले ही दिन से मैत्री आरम्भ हो गयी। आध घण्टे मे दोनों चिड़ियों की भाँति चहकने लगे। विरजन ने अपनी गुड़िया, खिलौने और बाजे दिखाये; प्रतापचन्द्र ने अपनी किताबे, लेखनी और चित्र दिखाये। विरजन की माता सुशीला ने प्रतापचन्द्र को गोद में ले लिया और प्यार किया। उस दिन से वह नित्य सन्ध्या को आता और दोनों साथ-साथ खेलते। ऐसा प्रतीत होता था कि दोनों भाई- बहिन हैं। सुशीला दोनों बालकों को गोद में बैठाती और प्यार करती। घण्टों टकटकी लगाये दोनों बच्चों को देखा करती, विरजन भी कभी-कभी प्रताप के घर जाती। विपत्ति की मारी सुवामा उसे देखकर अपना दुःख भूल जाती, छाती से लगा लेती और इसकी भोली-भाली बातें सुनकर अपना मन बहलाती।

एक दिन मुन्शी सञ्जीवनलाल बाहर से आये तो क्या देखते हैं कि प्रताप और विरजन दोनो दफ्तर में कुर्सियों पर बैठे हैं। प्रताप कोई पुस्तक पढ़ रहा है और विरजन ध्यान लगाये सुन रही है। दोनो ने ज्योही मुन्शी जी को देखा उठ खड़े हुए। विरजन तो दौड़कर पिता की गोद मे जा बैठी और प्रताप सिर नीचा करके एक ओर खड़ा हो गया। कैसा गुणवान् बालक था! आयु अभी आठ वर्ष से अधिक न थी; परन्तु लक्षण से भावी प्रतिभा झलक रही थी। दिव्य मुखमण्डल, पतले-पतले लाल-लाल अधर, तिव्र चितवन, काले-काले भ्रमर के समान बाल, उस पर स्वच्छ कपड़े। मुन्शीनी ने कहा―यहाँ आओ, प्रताप!

प्रताप धीरे-धीरे कुछ हिचकिचाता-सकुचाता समीप आया। मुन्शीनी ने पितृवत् प्रेम से उसे गोद में बैठा लिया और पूछा―तुम अभी कौन-सी किताब पढ़ रहे थे?