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वरदान
१०४
 

आनन्द की बधाई है।

सन्ध्या-समय गाँव की सब स्त्रियाॅ हमारे यहाॅ होली खेलने आयीं। माताजी ने उन्हें बड़े आदर से बिठाया। रग खेला, पान बॉटा। मैं मारे भय के बाहर न निकली। इस प्रकार छुट्टी मिली। अब मुझे ध्यान आया की माधवी दोपहर से गायब है मैने सोचा था स्यात् गाॅव में होली खेलने गयी हो। परन्तु इन स्त्रियों के संग वह न थी। तुलसा अभी तक चुपचाप खिड़की की ओर मुँह किये बैठी थी। दीपक में बत्ती पड़ रही थी कि वह अकस्मात् उठी, मेरे चरणों पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी। मैंने खिड़की की आर झाॅका तो देखती हूॅ कि आगे-भागे महाराज, उनके पीछे राधा और सबसे पीछे रामदीन पाडे चले आ रहे हैं। गाॅव के बहुत से आदमी उनके सङ्ग है। राधा का बदन कुम्हलाया हुआ है। लालाजी ने ज्योंही सुना कि राधा आ गया, चट बाहर निकल आये और बड़े स्नेह से उसको कण्ठ से लगा लिया, जैसे कोई अपने पुत्र को गले लगाता है। राधा चिल्ला-चिल्लाकर रोने लगा। तुलसी से भी न रहा गया। वह सीढियों से उतरी और लालाजी के चरणों पर गिर पड़ी। लालाजी ने उसे भी बड़े प्रेम से उटाया। मेरी आँखों में भी उस समय ऑसू न रुक सके। गॉव के बहुत से मनुष्य रो रहे थे। बड़ा करुणा-पूर्ण दृश्य था। लालाजी के नेत्रो में मैंने कभी आँसू न देखे थे। वे इस समय दखे रामदीन पाडेय मस्तक झुकाये ऐसा खडा था, मानो गोहत्या की हो। उसने कहा―‘मेरे रुपए मिल गये, पर इच्छा है, इनसे तुलसा के लिए एक गाय ले दूॅ,

राधा और तुलसी दोनो अपने घर गये। परन्तु थोड़ी देर में तुलसा माधवीका हाथ पकड़े हंसती हुई मेरे घर आयी और बोली―इनसे पूछा, ये अब तक कहाॅ थीं?

मे―कहाँ थी? दोपहर से गायब हो।

माधवी―यहीं तो थी।

मै―यहाॅ कहाॅ थी? मैने तो दोपहर से नहीं देखा। सच सच बता