अहीर उठा। एक अहिरिन की स्त्री मण्डली से निकली और दोनों चौक में जाकर नाचने लगे। दोनों नवयुवक और फुर्तीले थे। उनकी कमर और पीठ की लचक विलक्षण थी। उनके हाव-भाव, कमर का लचकना रोम-रोम का फड़कना, गर्दन का मोड़, अंगों का मरोड़ देखकर विस्मय होता था। बहुत अभ्यास और परिश्रम का कार्य है।
अभी यहाँ नाच हो हो रहा था कि सामने बहुत-से मनुष्य लंबी-लंबी लाठियाॅ कन्धों पर रखे आते दिखायी दिये। उनके संग डफ भी था। कई मनुष्य हाथों में झॉझ ओर माजीरे लिये हुए थे। वे गाते-बजाते आये और हमारे द्वार पर रुके। अकस्मात् तीन चार मनुष्यों ने मिलकर ऐसे आकाश- भेदी शब्दों में “अरररर...कवीर" की ध्वनि लगायी कि घर कॉप उठा। लालाजी निकले। ये लोग उसी गाॅव के थे, जहाँ निकासी के दिन लाठियाॅ चली थीं। लालाजा को देखते ही कई पुरुषों ने उनके मुख पर अबीर मला। लालाजी ने भी प्रत्युत्तर दिया। फिर लोग फर्श पर बैठे। इलायची और पान से उनका सम्मान किया गया। फिर गाना हुआ। इस गाॅववालों ने भी अवीरें मली और मलवायीं। जब ये लोग विदा होने लगे, तो यह होली गायी।
'सदा आनन्द रहे एहि द्वारे मोहन खेलें होरी।
कितना सुहावना गीत है! मुझे तो इसमे रस और भाव कूट-कूटकर भरा हुआ प्रतीत होता है। होली का भाव कैसे साधारण और सक्षित शब्दो में प्रकट कर दिया गया है। मैं बारम्बार यह प्यारा गीत गाती हूॅ और आनन्द लूटती हूॅ। होली का त्योहार परस्पर प्रेम शोर मेल बढाने के लिए है। सम्भव न था कि वे हो लोग, जिनसे कुछ दिन पहिले लाठियाॅ चली थीं, इस गॉव मे इस प्रकार वेधड़क चले आते। पर यह होली का दिन है। आज किसी को किसी से द्वेष नहीं है। आज प्रेम और आनन्द का स्वराज्य है। आज के दिन यदि दुखी हो तो परदेशी बालम की अवला। रोवे तो युवति विधवा। इनके अतिरिक्त और सबके लिए