पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/९७

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26. पौरव नहुष का बड़ा पुत्र ययाति ऋषि था । ययाति और दूसरे पुत्र उसके उत्तराधिकारी हुए । ययाति बड़े भारी धर्मात्मा , मन्त्रद्रष्टा और समर्थ पुरुष थे। इनका सैन्यबल भी असीम था । इन्होंने पृथ्वी को जीतकर धर्मराज स्थापित किया । ये अभिमानी थे । इनकी दो स्त्रियां थीं - एक दैत्य -याजक शुक्र की कन्या देवयानी, दूसरी दैत्यराज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा । देवयानी से यदु और तुर्वशु दो पुत्र तथा शर्मिष्ठा से अनु, द्रुह्यु और पुरु , ये तीन पुत्र हुए । पुरुरवा, नहुष और ययाति तीनों ही वेदर्षि थे। पाठकों को स्मरण होगा कि पुरुरवा का वंश असुर - याजक अत्रि से सम्बन्धित था । अब ययाति का विवाह दैत्यराज की पुत्री तथा दैत्यगुरु की पुत्री से होने तथा वैवस्वत मनु की पुत्री के कुल में होने के कारण वे दैत्यों और आर्यों के सब कुलों में सुपूजित हो गए । वे बड़े भारी शासक और दृढ़चित्त पुरुष थे। इनकी रुद्र से मित्रता हो गई। रुद्र ने इन्हें एक दिव्य रथ दिया । यह रथ जनमेजय द्वितीय तक उनके वंशधारों के पास रहा । पीछे बृहद्रथ द्वारा जरासन्धा को मिला । इनके पांचों पुत्र भी वंशधर हुए । परन्तु इसी समय एक खेदजनक असाधारण घटना हो गई । एक बार चैत्ररथ वन में मृगया करते हुए उसकी भेंट विश्वाची अप्सरा से हो गई । राजा विश्वाची के रूप - यौवन को देखकर मोहित हो गया और उससे रति की याचना की । विश्वाची ने कहा - “ हे धर्मात्मा , आप सब धर्मों के ज्ञाता - महाराज हैं । मैं गन्धर्वी हूं और पितृसंज्ञा में हमारी कुल परम्परा है । तुम भार्यारूप में अग्नि की साक्षी देकर मुझे ग्रहण करो तो मैं तुम्हारे साथ रति करने में प्रसन्न हूं। ” राजा ने यह बात स्वीकार कर ली और अग्न्याधान कर अग्नि की साक्षी में विश्वाची को ग्रहण किया। परन्तु वृद्ध और मन्दवीर्य शिथिलेन्द्रिय ययाति उस कामोन्मत्ता , रूपगर्विता , मुखरा नायिका विश्वाची के साथ रति करने में असमर्थ रहा। इस पर विश्वाची ने उसकी हंसी उड़ाई और कहा - “ राज्न , धर्मात्मा होकर , यह जानते हुए भी कि तुम वृद्ध और शिथिलेन्द्रिय हतकाम पुरुष हो , तुमने मेरे यौवन को कलंकित किया । अब कहो , कुलवती होकर मैं कैसे किस पुरुष से रति - याचना करूं ? इससे तुम्हारा इसी में भला है कि तुम्हीं इसका प्रबन्ध कर दो जिससे कुल - मर्यादा भी रहे और धर्म भी रहे। " । ययाति ने सोच-विचार कर एक उपाय स्थिर किया । उस काल में असुरों में ऐसा करना निन्दनीय नहीं गिना जाता था । उसने एक - एक कर अपने पांचों पुत्रों से अनुरोध किया कि वे अपना यौवन मुझे दें अर्थात् मेरे स्थान पर विश्वाची को रति -दान करें । परन्तु ययाति के चार पुत्रों ने मातृगामी होना स्वीकार नहीं किया । किन्तु पांचवां पुत्र पुरु राजी हो गया और उसने रति -दान में विश्वाची अप्सरा को संतुष्ट कर दिया । इस घटना से ययाति को बड़ी ग्लानि और क्षोभ उत्पन्न हुआ। वह आप ही आप कहने लगा - "हाय -हाय! कामोपभोग से कामशान्ति नहीं होगी । भोग - तृष्णा प्राणों का नाश करने वाली है। इससे इसे प्रथम ही से त्याग देना अच्छा है । यह कैसा आश्चर्य है कि शरीर