के चरणों में गिर गई, और कहा - “ हे सुव्रत, मेरा दोष नहीं है, मैंने आप ही के लिए शृंगार किया था , और आप ही के पास आ रही थी कि आपके भाई और फूफा दिक्पाल वरुण मुझे जबर्दस्ती पकड़कर अपने विलास- कक्ष में ले गए। अवश मुझे यह शृंगार उन्हें अर्पित करना पड़ा । ” इस पर अत्यन्त क्रुद्ध होकर सूर्यदेव ने कहा- “ अरी दुराचारिणी,मुर्वास वादा करके दूसरे के पास क्यों गई ? " उन्होंने उसे देवलोक से निकाल दिया । काल पाकर उसने एक बालक को प्रसव किया और फिर नवीन शृंगार कर सूर्यदेव को प्रसन्न कर उन्हें तृप्त किया । सूर्यदेव के औरस से भी उसे एक पुत्र की उपलब्धि हुई। कालान्तर में वे दोनों बालक युवा होने पर महर्षि अगस्त्य और महर्षि वशिष्ठ के नाम से प्रसिद्ध हुए । कालान्तर में सूर्य से उसने एक अनिन्द्य सुन्दरी कन्या को भी जन्म दिया , जो यौवन का प्रसाद पाकर अपनी माता से भी अधिक दिव्यरूपा हुई । उरपुर के निवासी देव उस प्रस्फुटित कुन्दकली - सी सुकुमारी - उस उर्वशी पर मुग्ध हो उठे । उन दिनों ऐसी ही परिपाटी थी । अप्सराएं नगर वधू होती थीं । इसी से इस अप्सरा का नाम भी माता के नाम की भांति उर्वशी - उर में रहने वाली - देवलोक में प्रसिद्ध हो गया । इस नवीना पर बहुत लोलुप दृष्टि पड़ने लगी, पर यह बड़ी मानिनी थी । इसने किसी को भी अपना शरीर अर्पण नहीं किया । उन्हीं दिनों दैत्यों की राजधानी हिरण्यपुर में केशियों का एक सम्पन्न यूथपति रहता था । उन दिनों बेबीलोनिया और इलावर्त के बीच का सारा इलाका केशी लोगों के अधीन था । केशी प्रसिद्ध घुड़सवार थे — संभवतः वर्तमान कज्जाक इन्हीं के वंशधर हैं । इस केशी यूथपति ने देवताओं को परास्त कर बहुत ख्याति प्राप्त की थी । उसका बाहुबल असीम था । बहुत दिनों से उसकी दृष्टि उर नगर -निवासिनी इस उर्वशी पर थी । पर सूर्य के भय से वह उससे दूर ही रहता था , फिर भी वह उसे हरण करने की ताक में था । उन दिनों असुर प्रदेश का उर नगर बड़ा प्रसिद्ध नगर था । आज भी पर्शिया में हिरण्यपर के स्थान पर हिरन नगर बसा है, तथा वहीं पर उर नगर भी अभी तक है। दैवसंयोग से उसे एक अवसर मिल गया । उर नगर के बाहर वन में विचरण करती हुई अकेली देवबाला उर्वशी को उसने घेरकर पकड़ लिया और उसे बलात् हरण करके हिरण्यपुर की ओर ले भागा। सिंह के पंजे में फंसी हरिणी की भांति उर्वशी उसके अंक में फंसी छटपटाने तथा बाज पक्षी के पंजों में फंसी कुक्कुटी की भांति चिल्लाने लगी। संयोग ऐसा हुआ कि इसी समय महाराज पुरुरवा उसी राह से रथ पर सवार जा रहे थे। उन्होंने उर्वशी का क्रन्दन सुना । सुनकर उन्होंने उस केशी का पीछा कर उसे ललकारा । अपने काम में व्याघात पाकर केशी यूथपति क्रुद्ध हो अपना शिकार छोड़ पुरुरवा पर झपटा । दोनों महावीरों में तुमुल संग्राम छिड़ गया और बड़े भारी प्रयास के बाद पुरुरवा ने केशी को मार डाला । यूथपति केशी से छुटकारा पाकर उर्वशी भय से पीली , कांपती हुई राजा के पास आ खड़ी हुई । उसने मौन हो केवल वाष्पाकुल नेत्रों से राजा के प्रति कृतज्ञता प्रकट की । वह राजा के रूप और शौर्य पर रीझ गई। राजा उसे रथ में बैठाकर उरपुर में आया तथा उसे देवों के सुपुर्द कर दिया । उर्वशी के मुख से घटना का पूरा विवरण सुन तथा महाराज पुरुरवा का शौर्य, वंश और स्वरूप देख देवों ने उन्हें ही उर्वशी दे दी । अग्नि को साक्षी कर महाराज पुरुरवा उर्वशी को अपने मणिहर्म्य में ला उसके साथ विलास करने लगे। पुरुरवा ने साठ वर्ष उर्वशी के साथ कालयापन किया । इस बीच उर्वशी से उसके आठ तेजस्वी पुत्र
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