वरुण और विष्णु को उसने अपने ऊपर प्रसन्न कर लिया , और अपने इलाके के पश्चिम प्रदेश के मित्तन्नु और उरु , उमा , आदि बेबीलोनिया जाति के जत्थेदारों से उसने मित्रता कर ली । परन्तु उत्तर के दैत्य और दानव उसके विरोधी हो गए और उनसे उसके विग्रह भी प्रारम्भ हो गए । इस साहसी तरुण ने इन्द्र की पदवी धारण की । उसने अपने पड़ोसी और मित्र बेबीलोनियन सम्राटों की भांति अपने को देव कहना प्रारम्भ कर दिया । बेबीलोनियन सम्राट् देव कहाते थे तथा सोमपान का भारी उत्सव किया करते थे; उन्हीं की देखा - देखी इन्द्र ने देवभूमि में अपनी पूजा प्रचलित की तथा बेबीलोनियन लोगों की भांति सोमपान की परिपाटी देवों में चलाई । अब तक उस प्रान्त के सब अदिति - पुत्र आदित्य ही कहाते थे; अब उसने उस भूमि का नाम देवभूमि रखकर देवभूमि के सब निवासियों को देव संज्ञा दे दी , और वह स्वयं देवराट् बन गया । इस समय तक वेदों की कुछ ऋचाओं का निर्माण हो चुका था , और कुछ ऋषि ऋचाओं का निर्माण करते जाते थे । इसी काल में मैत्रावरुण वशिष्ठ ने ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं का निर्माण किया था और एक विशिष्ट वैदिक विधि आदित्यों में प्रचलित की थी । परन्तु वशिष्ठ के ही सौतेले भाई नारद ने जो वरुण का पुत्र था भृगुओं से सम्पर्क में आकर कुछ ऋचाएं बनाकर वेदों की वामविधि प्रचलित की । धीरे - धीरे वशिष्ठ और नारद , दोनों में वैदिक विधि और ऋचाओं को लेकर अच्छा - खासा विवाद होने लगा । नारद एक भुक्खड़ और आवारागर्द मनमौजी प्रकृति के ऋषि थे। शीघ्र ही वे वशिष्ठ का विरोध करने और वेदविधि में वामविधि की स्थापना करने के कारण वामदेव के नाम से भी प्रसिद्ध हो गए । इन्द्र ने इन नारद अथवा वामदेव को अपना मित्र बना लिया , और उसे मधु और पुरस्कार देकर उनसे अपनी स्तुति में एक समूचे- सक्त की रचना करा ली , जो आगे चलकर ऋग्वेद का एक सूक्त हो गया । नारद वामदेव को जब , दूसरे ऋषियों ने, जो वैसे ही भुक्खड़ थे, इन्द्र के द्वारा पुरस्कृत होते देखा, तो उन्होंने भी इन्द्र की स्तुति में रचनाएं रचीं । इस प्रकार इन्द्र ने नारद और दूसरे मित्रों की सहायता ले देवभूमि में एक नई वैदिक संस्कृति की नींव डाली । यद्यपि इन्द्र का यह प्राधान्य आदित्यों को पसन्द न था । परन्तु इन्द्र एक खटपटी और धूर्त व्यक्ति था । उसने आदित्यों के नेता मित्रावरुण को लल्लो- चप्पो के द्वारा और दूसरे आदित्यों को मान- पुरस्कार देकर अपने अनुकूल कर लिया , और उसका यह ढंग देवलोक में इतना पसन्द किया गया कि उसके अनुकरण पर मित्र , वरुण, यम , अग्नि आदि दिक्पालों ने भी अपनी - अपनी स्तुति की ऋचाएं ऋषियों से बनवाई। । इन्द्र का यह राज्य दैत्यों और दानवों की राज्य - सीमाओं से लगा हुआ था , जो काश्यप सागर - तट पर दूर तक फैले हुए थे। यद्यपि ये देव , दैत्य , दानव परस्पर सम्बन्धी और दायाद बान्धव थे, तथापि उनमें सांस्कृतिक एकता न थी -विग्रह ही था । परन्तु फिर भी कौटुम्बिक सम्बन्ध उनमें प्रचलित थे। इन्द्र ने पुलोमा दैत्य की पुत्री से विवाह किया था । फिर भी दैत्य और दानवों से उसके युद्ध-विग्रह चलते ही रहे । दैत्य लोग दितिपुत्र होने के कारण अपने को श्रेष्ठ और ज्येष्ठ समझते थे। आदित्यों में वरुण की नीति तो समन्वयमूलक ही थी । परन्तु आदित्य विष्णु से , जो कि अत्यन्त महत्त्वाकांक्षी था , दैत्यों के संघर्ष-विग्रह स्वर्ग - प्राप्ति पर आरम्भ हो चुके थे, जिसमें इन्द्र ने यथेष्ट आग्रह प्रदर्शित करके विष्णु को
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