जिनमें अनेक कमल खिले हैं । वहां भांति - भांति के रंग-बिरंगे पुष्प सुशोभित हैं । देवता , गन्धर्व और किन्नर जो वहां हैं , देवों की उपजातियां ही हैं । उनसे तेरी संस्कृति का मेल भी है। इससे पुत्र , तू यही कर। लंका को छोड़ दे। यह रावण दशग्रीव बड़ा अभिमानी और क्रोधी है । वह न किसी की सुनता है, न किसी मान्य- अमान्य को मानता है। इसीलिए मेरी तुम्हें यह हितकारी सीख है । " और कुबेर ने यह सीख मान ली । इसका मर्म वह समझ गया । उसने चुपचाप लंका खाली कर दी । अपने यक्षों को तथा सब सम्पदा को लेकर वह पुष्पक विमान में चढ़ गन्धमादन पर्वत पर चला गया और वहां अलकापुरी बसाकर निवास करने लगा । रावण ने भी उससे अधिक छेड़ - छाड़ नहीं की । उसे अपने सब , धन , रत्न और परिजनों सहित चला जाने दिया । कुबेर के लंका छोड़ते ही राक्षस बहुत प्रसन्न हुए । रावण ने आज्ञा दी -जिसे हमारी रक्ष - संस्कृति स्वीकार नहीं , वह लंका छोड़ दे, नहीं तो उसका शिरच्छेद होगा । सभी देव , दैत्य , दानव , असुर, नागों ने उसकी रक्ष- संस्कृति स्वीकार कर ली । वयं रक्षाम : का मूल मन्त्र लंका का ध्रुव ध्येय बना । अब लंका को सुदृढ़ - सुगठित कर विश्वस्त राक्षसों को राज्य के भिन्न -भिन्न भाग दे, अपने ग्यारह मामाओं को राजसचिव बना वह रावण लंकापति , राक्षसेन्द्र पद पर अभिषिक्त हुआ, मन्दोदरी उसकी राजमहिषी ।
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