इसी समय चेटी ने आकर निवेदन किया - “ समुद्र - गृह में शय्या सज्जित है । " सखियों ने रावण के संकेत से मन्दोदरी को उठाया और समुद्र- गृह की ओर ले चलीं। समुद्र- गृह के द्वार पर जाकर सब ठिठक गईं । रावण ने हाथ पकड़कर मन्दोदरी को भीतर लिया । सखी चेटियां लौट गईं। प्रासाद में मंगल-वाद्य बज रहे थे तथा नृत्यांगनाएं मंगल - गान कर रही थीं । कक्ष में सुगन्धित तेल के दीप बड़े - बड़े दीपाधारों पर जल रहे थे। कृशोदरी मन्दोदरी को अंक में भरकर रावण ने उसके शतसहस्र चुम्बन ले डाले । फिर उसने उसकी आंखों में आंखें डालकर कहा - “प्राणसखि ! क्या यह स्वप्न नहीं है ? क्या सचमुच ही तुम , मूर्तिमती कौमुदी, आज मेरे सान्निध्य में हो ? तब क्या दानव मकराक्ष ने मेरी बलि नहीं दी ? वह सब स्वप्न था ? " मन्दोदरी ने पलकों में मुस्कान भरके कहा - “ सत्य था । मैंने आपको बलियूप में बंधे देखा । " " तब तुमने यह भी आशा की थी कि यह यूपबद्ध बलिपुरुष तुम्हारा पति होगा ? " " आशा नहीं , कामना की थी , पितृचरण से मैंने आग्रह किया था , वे तुम्हारी रक्षा करें । " "फिर? " " दानवेन्द्र मकराक्ष ने पितृचरण का अनुरोध नहीं माना। इसी से पितृचरण ने अपने बान्धव दानवों से विद्रोह किया । उन्होंने दानवेन्द्र के विरुद्ध तुम्हारे पक्ष में युद्ध किया था । " “ कहां ? यह तो उन्होंने कहा नहीं। " " न कहने से क्या , पितृचरण आत्मश्लाघा नहीं चाहते । " “ मैं उनका उपकृत हूं ; क्या मैं उनका कुछ प्रिय कर सकता हूं ? " “ यदि तुम मातृचरण का उद्धार कर सको। " “ कहां हैं वे? ” " उरपुर में , देवों के सान्निध्य में । " "किसके ? " "वारूणों के । " “किन्तु ... ” " क्या ? " " वहां वे क्या स्वेच्छा से हैं ? " “ मैं नहीं जानती ; जब वे गईं, मैं बहुत छोटी थी । " " कोई सन्देश मिला ? ” " नहीं। " " अच्छा, समय पर याद दिलाना । दिक्पाल वारुणों को देखूगा मैं ! " “ अनुगृहीतास्मि । ” “ क्या तुम मुझे पाकर प्रसन्न हुई, प्रिये ? " “ यह तो अधिक से भी अधिक है। " " तुमने पहले कभी मेरा नाम सुना था ? "
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