रावण अपनी अभिसारिका उस दैत्यबाला का अपनी ही आंखों के सम्मुख निधन देख अत्यन्त व्यथित हुआ । दानवों का दलन करने तथा मकराक्ष की जीवित आहुति देने से उसका क्रोध यद्यपि कम हो गया था , पर उसका मन शोक - दग्ध हो रहा था । वह इस समय एकाकी समुद्र तीर पर चित्त शान्त करने और स्वस्थ होने के लिए आया था । वह आज अपने स्वभाव के विपरीत दुखित था । रह - रहकर उसे दैत्यबाला के साहस और उत्सर्ग की याद आती थी । यद्यपि बलि - मांस के साथ उस बाला का मांस भी उसने सब राक्षसों के साथ खाया था , और यह उसके विश्वास के अनुसार उसके प्रति सबसे अधिक पवित्र व्यवहार था , परन्तु उस प्रियतमा का अभाव उसे इस समय खटक रहा था । इसी समय उसने देखा , एक दीर्घकाय दानव उसकी ओर चला आ रहा है । उसके साथ ही एक परम सुन्दरी सलोनी बाला है । दानव बहुत लम्बा और कृशकाय था । उसकी साथ वाली बाला अनूढ़ा थी । तपाए हुए सोने के समान उसका रंग था । क्षीण कटि और स्थूल नितम्ब थे। वह सोलह सुलक्षणों से युक्त थी । उसके केश काले, सघन , चिकने और धुंघराले थे। वे पाद - चुम्बन कर रहे थे। भौंहें जुड़ी हुई , जंघाएं रोम - रहित , गोल; दांत सटे हुए थे । नेत्रों के समीप का भाग , नेत्र , हाथ , पैर , टखने और जंघाएं सब समान और उभरे हुए थे। नख अंगुलियों की गोलाई के समान गोल थे। हस्त -तल उतार - चढ़ाव वाला , चिकना , कोमल और सुन्दर था । उंगलियां समान थीं । शरीर की कान्ति मणि के समान उज्ज्वल थी । स्तन पुष्ट और मिले हुए थे। नाभि गहरी थी तथा उसके पार्श्व- भाग ऊंचे थे। वक्षस्थल और दोनों पाश्र्व उतार - चढ़ाव वाले थे। शरीर के रोम कोमल थे। दोनों चरणों की उंगलियां और तलुए, ये बारहों भूमि से भाली - भांति सट जाते थे। हाथ - पैर लाल थे। उनमें यव की रेखाएं थीं । मन्द मुस्कान निरन्तर उसके होठों पर खेल रही थी । ऐसी ही सुलक्षणा सुकुमारी दानव की वह बेटी थी । दानव ने धीरे - धीरे रावण के निकट आकर उसे स्वस्ति कहा । लाज से सिकड़ी हई तथा शोभा और कोमलता से परिपूर्ण उस बाला को नीची आंखें किए उस दानव के पास खड़ी देख एक बार रावण चमत्कृत हो गया । उसने दानव से कहा - “ महाभाग ! आप कौन हैं , और मेरे निकट आने में आपका क्या प्रयोजन है ? " । “ आप विश्रवा मुनि के पुत्र रावण पौलस्य हैं न ? " " वही हूं। ” " तो मेरा आप ही से काम है, रक्षराज ! ” “ आपने क्या रक्ष- संस्कृति स्वीकार कर ली है? " “निस्संदेह , और मैं आपके अधीन हूं। ” " तो महाभाग , यह वैश्रवण रावण पौलस्त्य आपका क्या प्रिय कर सकता है ? परन्तु आप कौन हैं ? पहले यह कहिए। " । “ मैं दनुपुत्र मय हूं। " “ आप प्रजापति के वंश के हैं , मैं आपको अभिवादन करता हूं। " " तो सौम्य रावण , मेरी कथा सुनो । ” “ सुन रहा हूं । " " काश्यप सागर - तट पर हिरण्यपुर के निकट मेरा पुर है, और मैं दैत्यपति
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