15. वाचे पुरुषमालभेत ज्यों ही दोनों की मूर्छा भंग हुई , उन्होंने देखा - सूर्य की चमकती हुई सुनहरी धूप में दोनों तीर की रेती पर पड़े हैं , और बहुत - से दानवों ने उन्हें घेर रखा है । रावण उठकर बैठ गया । तरुणी को सम्बोधित करके उसने कहा - “ हम कहां हैं ? " “ सम्भवत : दानवों के द्वीप में । " । रावण ने आंख उठाकर अपने चारों ओर खड़ी भीड़ को देखा । उनमें आबाल -वृद्ध सभी थे। बहुतों का रंग गोरा और मुख सुन्दर था । अपने को बन्धनरहित देख रावण हंसा ; उसने हंसकर युवती से कहा - “ देखना यह है कि हम बन्दी हैं या अतिथि । ” इस समय शस्त्रधारी दानवों की एक टोली वहां आई । टोली के नायक ने अपना शूल रावण के वक्ष पर रखकर कहा - “ चलो , दानवेन्द्र की सेवा में । " । रावण ने संगिनी की ओर देखा और चुपचाप खड़ा हुआ । दानवों की एक टोली दोनों बन्दियों को घेरकर ले चली । टेढ़े- मेढ़े रास्ते पार करते हुए वे एक पर्वत पर चढ़ने लगे । बन्दियों के पीछे बहुत - से दानव आबाल - वृद्ध थे। सभी कौतूहल से पूर्ण थे। शीघ्र ही यह दल उस छोटी - सी पहाड़ी के शिखर पर चढ़ गया । शिखर पर एक छोटा - सा मैदान था । मैदान के बीचों-बीच जलदेव की विकराल मूर्ति थी । उसके आगे दो यूप थे। दानवों ने दोनों बन्दियों को यूपों से कसकर बांध दिया । थोड़ी देर में दानवेन्द्र मकराक्ष गाजे - बाजे के साथ आया । दानवेन्द्र के साथ ही उसकी महिषी भी थी । महिषी प्रौढ़ावस्था की थी । कभी वह सुन्दरी रही होगी । उसके अंग पर रत्न - मणि -स्वर्ण का बाहुल्य था । वह सुकोमल चर्मसज्जा से सज्जित थी । दानवपति मकराक्ष ने भी मस्तक पर, भुजाओं पर, वक्ष पर स्वर्ण धारण किया था । उसके एक हाथ में स्वर्ण -दण्ड था , दूसरे में मणिकलश। वह धीरे- धीरे कोई मन्त्रपाठ करता आ रहा था । उसके साथ एक ठिगने कद का वृद्ध पुरुष था । उसकी खूब बड़ी लम्बी सफेद दाढ़ी थी । वह कमर में व्याघ्रचर्म पहने था । उसके हाथ में बहुत बड़ा खड्ग था । दोनों पुरुष यूप के आगे आकर रुक गए । दानवेन्द्र ने महिषी - सहित देवता का पूजन किया । फिर दोनों बन्दियों को मुक्त कर स्नान कराकर उन्हें नवीन वस्त्र धारण कराए । हविष्यान्न खाने को दिया । इसके बाद दानवेन्द्र ने महिषी सहित हवन किया । अग्नि प्रदक्षिणा करके उसने बलि का पूजन किया । वृद्ध दाढ़ीवाला व्यक्ति चरक था । उसने मन्त्रपाठ करते हुए कहा : “वाचे पुरुषमालभेत। " दैत्येन्द्र ने अंजलि में जल भरकर कहा - “ वाग्देवतायै पुरुषं पूरकम् आलभेत । " इतना कहकर उसने अंजलि का जल रावण के सिर पर छिड़क दिया । दाढ़ीवाले पुरुष ने फिर प्रदक्षिणा कर कहा - “ प्रतीक्षायै कुमारीम्। " दैत्येन्द्र ने उसी भांति अंजलि में जल भरकर कहा - “ प्रतीक्षायै लब्धव्यस्य वस्तुनो
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