पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/६१

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“ अभी बहती चल , अपने को डाल दे इस काष्ठ -फलक पर । और मेरे कण्ठ में डाल दे अपने भुज - मृणाल ! बस , चिन्ता न कर। " दोनों ही उस अगम महासागर में उस क्षुद्र काष्ठ -फलक के सहारे तैरते जा रहे थे । आहत और अशक्त रावण थक गया था । पर उसका साहस अपूर्व था । इसी समय अचानक तरुणी ने चीत्कार करके कहा : __ “ वह काली वस्तु क्या है, देख ! " रावण ने सिर उठाकर देखा , भुनभुनाते हुए कहा - “ तरणी है। दोनों ने प्रयास करके तरणी को अधिकृत कर लिया । वह उलट गई थी । उसे सीधा किया और स्वयं उस पर चढ़कर उसने तरुणी को भी खींच लिया । और फिर गिर गए तरुणी पर निश्चेष्ट, परस्पर संश्लिष्ट, आबद्ध , मूर्छित ! समुद्र शान्त था और तरणी जलतरंगों पर थिरकती अपनी राह पर जा रही थी , तीर की ओर।