शरीर को उस पर टेक दिया , और एक भुजा से उसे संभालती हुई तथा दूसरी से लहरों को काटती हुई वह महासागर से कठिन जीवन - युद्ध करने लगी । थोड़ी ही देर में रावण की मूर्छा भंग हुई । इससे दैत्यबाला अत्यन्त आशान्वित हो उसके बिल्कुल निकट आकर बोली - “ साहस कर रमण, और अपने भार को ठीक तरह से इस काष्ठ -फलक पर रख ! " रावण ने अपने भार को ठीक तरह काष्ठ-फलक पर डाला । फिर एक हाथ से उसे निकट लाते हुए बोला - “ तूने मेरी प्राण -रक्षा की है। _ “मातृचरण को खोकर , हन्त ! एक ही क्षण में मुझे तू दिखाई पड़ा और माता भी । मैं एक ही की रक्षा कर सकती थी - सो मैंने तुझे ही सहायता दी । तू चेतन है, स्वस्थ है - मैं इससे प्रसन्न हूं । पर तू इन दानवों में कैसे आ फंसा, रमण ? " " तेरे ही लिए । एक भाण्ड मद्य पीने के लिए तेरा निमन्त्रण था , और तुझे हरण करने का मेरा आग्रह था । इसी से तेरे ग्राम में आया था । पर जब देखा , मेरे अभिसार को कोई और ही हर ले गया तो मैं संयत न रहा, दानवों का मैंने पीछा किया । " " तू तो रथी था , विरथ क्यों हुआ ? रथ पर रहते क्या वे तुझे पराभूत कर सकते ? " “ पर वे सब तो विरथ थे। विरथ से रथ लेकर युद्ध करना मेरी मर्यादा नहीं । " " तेरे पराजय के शौर्य से मैं आनन्दित हूं , रमण । ” “किन्तु पराजित किया किसने ? “ दानवेन्द्र ने तो । " " न , तूने । ” " वह क्या आज ? न -न , उसी विजन वन में सरोवर के तीर पर । " “ उसी की खीझ उतारने तो तेरे ग्राम आया था । " “ सो यहां तक साथ है। ” दैत्यबाला हंस दी । तूफान गर्जन - तर्जन कर रहा था लहरें आकाश - पाताल एक कर रही थीं , पर ये युगल वीर जलदेव को लातों से तिरस्कृत करते दिल की घुण्डी खोलते जाते थे। " अभी आगे भी साथ रहेगा । ” रावण ने लापरवाही से कहा । " कब तक भला ? " " इसका उत्तर तो पीछे– इस जलदेव से रक्षा होने पर दिया जाएगा। अभी तू अधिक प्रयास न कर , काष्ठ- फलक पर सहारा ले चुपचाप तैरती चल । चिन्ता न कर । " “मुझे भय था कि अब कहां तू मिलेगा । " “ एक क्षण भी मैंने तुझे नहीं भुलाया और अवकाश पाते ही मैं तेरे लिए भागा आया हूं। " " तू वीर है, रमण ! " “ किन्तु आज रात ही कहीं जल- समाधि हई तो ? " "मैं प्रसन्न हूं , हो जाए। " “ नहीं, मेरा कार्य अभी सम्पूर्ण नहीं हुआ। मैं इस दानव को जय किए बिना लौटूंगा नहीं । " " क्या तू इतना सम्पन्न है , ऐसी तेरी सामर्थ्य है ? "
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