दानवेन्द्र का नाम मकराक्ष था । वह बाली द्वीप के आस -पास के छोटे- छोटे द्वीपों का स्वामी था । नागराज का वह मित्र था । वह एक तेजस्वी योद्धा था । उसने कहा - “ अरे , विश्रवा के पुत्र , तू तो बड़ा ही धृष्ट दीख पड़ता है। क्या दानवों से भी तू भय नहीं खाता ? तू वीर और प्रियदर्शन है, पर तूने हमारे मित्र नागपति वज्रनाभ को मारा है, इसका दंड मैं तुझे दूंगा । इसके अतिरिक्त तूने मेरे काम में प्रत्यवाय किया है । आज मैं तेरे ही स्वादिष्ट मांस का भोजन करूंगा। बोल , मरने से प्रथम तू क्या चाहता है ? मैं मकराक्ष दानवराज हूं। कह , तुझ शत्रु का क्या प्रिय करूँ ? ” “ दानवराज मकराक्ष, भले मिले। आपका नाम मैंने सुना है । युद्धं देहि ! मैं आपसे युद्ध मांगता हूं। पर आप विरथ हैं , इसलिए मैं रथ पर नहीं लडूंगा । " रावण रथ से कूद पड़ा । दानव ने कहा - “ नहीं, विश्रवा मुनि के पुत्र , तू रथ पर ही रह ! हम विरथ हैं , पर संख्या में बहुत हैं । तू एकाकी है, सो रथ पर अयुक्त नहीं है । " । । परन्तु रावण ने स्वीकार नहीं किया । अकम्पन की बात भी नहीं मानी । उसने कहा - “मातुल , तुम खड़े रहकर मेरा युद्ध देखो ! ” इतना कहकर वह अपना परशु घुमाता हुआ , दानवों के दल में घुस गया और रणोन्मत्त हो दानवों के सिर अपने परशु से काटने लगा । दानव भी तोमर, भिन्दिपाल आदि शस्त्र ले रावण पर टूट पड़े । परन्तु रावण इससे तनिक भी भयभीत न हुआ । यह देख दानवेन्द्र ने पांच तोमरों से रावण पर प्रहार किया । इससे रावण रक्त में सराबोर हो गया । परन्तु उसे तनिक भी संभलने का अवसर न दे दानवेन्द्र ने यमदण्ड के समान भारी मुद्र घुमाकर रावण के वक्ष पर प्रहार किया । इससे रावण रक्त - वमन करने लगा और थोड़ी ही देर में मूर्छित हो पृथ्वी पर गिर गया । दानव- सेना हर्ष से चीत्कार कर उठी । मकराक्ष ने कहा - “ अब इस मत्त गयन्द को लौह - शृंखलाओं में बांध लो ! ” परन्तु इसी समय रावण चेतन हुआ । क्रोध से थरथराता रावण फणी की भाँति हुंकार करके खड़ा हुआ और उसने प्रचण्ड वेग से मकराक्ष पर शक्ति चलाई । शक्ति के छाती पर लगते ही दानवेन्द्र घूमकर पृथ्वी पर गिर गया । यह देख हाय - हाय करते बहुत से दानवों ने अपने राजा को घेर लिया । क्रुद्ध रावण ने उनका इस प्रकार दलन करना प्रारम्भ किया कि वे, जिसका जिधर सींग समाया , भाग खड़े हुए । इसी समय दानवेन्द्र की मूर्छा टूटी । उसने अपनी भागती हुई सेना का निवारण किया । फिर रावण से कहा - “वीर विश्रवापुत्र, तू धन्य है ! तेरे वीरत्व पर मैं प्रसन्न हूं। परन्तु तुझ एकाकी विरथ रथी से हम सबका युद्ध करना न्यायसंगत नहीं है। इसलिए वीर , तू हममें से जिसे चाहे, उसी से द्वन्द्वयुद्ध कर । ” रावण ने मुंह का रक्त पोंछते हुए कहा - “ ऐसा ही सही। तब दानवेन्द्र मकराक्ष स्वयं ही मेरे साथ युद्ध करके मेरी प्रतिष्ठा बढ़ाएं । " यह सुनकर दानवेन्द्र ने कहा - “ तथास्तु ! ” दोनों वीर गदा लेकर परस्पर गुंथ गए। उनकी गदाएं जब आपस में टकराती थीं तो उनमें से अग्निस्फुलिंग निकलता था तथा बड़ा घोर शब्द होता था । दोनों वीर एक - दूसरे के वक्ष को ताक - ताककर वार करना चाहते थे। परन्तु दोनों में से कोई किसी को अवसर न देता था । बहुत देर तक यह असह्य युद्ध होता रहा । अन्त में अवसर पाकर दानव मकराक्ष ने गदा घुमाकर रावण के वक्ष पर प्रहार किया । प्रहार से गदा के दो टुकड़े हो गए। रावण दर्द से कराहकर भूमि पर गिर गया और रक्त
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