13. दानव मकराक्ष भोर होते ही रावण ने रक्ताम्बर धारण किया । गोह - चर्म के दस्ताने पहने । कृष्णाजिन वक्ष पर बांधा । सिर पर किरीट , पैरों में चर्म - रज्जु के दृढ़ उपानह। कमर में दुकूल और उस पर मरकतमणि का कटिबन्ध । कन्धे पर धनुष और हाथ में वही विकराल परशु जिसका नाग - रक्त अभी सूखा न था । उसने अपने मामा अकम्पन को बुलाकर कहा - “ मातुल , नागपति की अश्वशाला से सर्वश्रेष्ठ चार अश्वतरियां छांट लो , और नागराज का स्वर्णरथ मेरे लिए तैयार करो। उसे शक्ति , शूल, परिघ , बाण और तोमर से सज्जित कर शीघ्र उपस्थित करो। " अकम्पन के जाने पर उसने वृद्ध दैत्य सुमाली से कहा - “ मातामह , एक छोटा - सा अभियान है, मैं जाता हूं, बाली द्वीप और नागराज के अवरोध का आप यथारुचि विघटन कर लीजिए । " सुमाली ने कहा - " तुझे क्या कुछ भट चाहिए, पुत्र ? " " नहीं, मातुल अकम्पन मेरे साथ हैं । ” सुसज्जित रथ आ उपस्थित हुआ । वह मणि -कांचन के सहयोग से, विचित्र चित्रकला द्वारा , विश्वकर्मा ने बनाया था । चर्मफलक और चर्मरज्जुओं से वह बंधा था । उसमें सहस्र स्वर्णघंटिकाएं लगी थीं , जिनकी क्वणनध्वनि शत - सहस्र भ्रमरों के गुंजन की भांति कर्णप्रिय थी । काले रंग की चार अश्वतरियां , जो उसमें जुती थीं , वे विद्युत् की भांति चपल थीं । उनके कान खड़े थे और थूथनें बड़ी -बड़ी थीं । वे अपने खुरों से भूमि को खोद अपनी आतुरता प्रकट कर रही थीं । रावण रथ पर सवार हुआ और अकम्पन ने वल्गु ली । अश्वतरियां वायुवेग से चलीं । रावण के संकेत पर, पर्वत की उपत्यका की दिशा में अर्जना- तट की ओर । देखते- ही - देखते वन , वीथी , हाट , मार्ग, पीछे रहते चले गए। पाश्र्व में समुद्र को गर्जन करते छोड़ समुद्र-गर्जना से होड़ - सी करती हुई रथ की स्वर्ण- घण्टिकाएं क्वणन- ध्वनि करती हुई चली जा रही थीं - धनुष से छूटे हुए साठ टंक के बाण के समान वेग से , सीधे अर्जना - तट की ओर जहां रावण की अभिसार -नायिका - वही, उन्मुख, अनावृत यौवन वाली दैत्यबाला थी , जिसने रावण के वक्ष पर स्तन -विक्षेप के बाद लात मारकर उसे सम्पन्न किया था , और जिसने उसके महाघ मरकत के कटिबन्ध के दान को अस्वीकार कर , कल अस्तंगत सूर्य के सान्निध्य में एक भाण्ड मद्य पीने के लिए उससे अनुरोध किया था । वह उन्मुख , अनावृत यौवन , वह चरणाघात , वह उन्मुक्त हास और जलगर्भ का विलास , जैसे शतसहस्र मुख से रावण के वज्रवक्ष को आन्दोलित कर रहा था । उसे एक - एक क्षण का विलम्ब भी सह्य न था । वह असंयत - सा कह रहा था - “ सर्प, मातुल ! सर्प ! ” और
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