लोप होने लगा तथा मद्य भी नागों के मस्तिष्क में पहुंचकर ऊधम मचाने लगा। इसी समय सब बाजे ज़ोर - ज़ोर से बज उठे । नृत्यांगनाओं ने भावनृत्य आरम्भ किया । प्रत्येक नृत्यांगना हाथ जोड़ दोनों हाथों के अंगूठे नाक से लगाकर प्रथम नागराज को और फिर उसके मान्य अतिथियों को प्रणाम करती - तब नृत्य करती । अनेक प्रकार के सज्जा नृत्य , विलास नृत्य और भाव - नृत्य होते रहे । फिर भंगिमा - नृत्य होने लगे । प्रत्येक नृत्य -नाटक में गायक और वादक के साथ कहानी भी चलती थी । इसके बाद युद्धाभिनय हुआ । देवासुर संग्राम की भूमिका चलने लगी। धीरोदात्त पात्र अभिनय करने लगे । मद्यपान धूम - धाम से चल रहा था । नागराज आनन्दातिरेक से बहुत - सा मद्य पी चुके थे। दैत्य उन्हें ढाल - ढालकर और भी मद्य देते जा रहे थे। सुमाली उन्हें बढ़ावा दे रहा था । अकस्मात् बाहर बहुत - सा गोल -माल सुनाई दिया । और सावधान होने से प्रथम ही चारों ओर से दैत्य सुभट भारी - भारी खड्ग , परशु , त्रिशूल , मुद्र लिए सभा -मंडप में घुस आए और लगे मार - काट करने ! देखते - ही देखते नागों का विध्वंस होने लगा । चारों ओर कोलाहल मच गया । नागराज ने विस्मित होकर रावण की ओर देखकर कहा - “ पुत्र , यह क्या ? ” रावण ने अपना परशु उठाया । वह उछलकर सिंहासन पर खड़ा हो गया । हवा में उसने चारों ओर परशु हिलाकर जल्द - गम्भीर स्वर से गरजकर कहा - “ वयं रक्षाम : ! ___ उसने फिर हवा में परशु हिलाया । संकेत से उसने दैत्यों को रोका। क्षणभर को मार - काट रुक गई । परन्तु दैत्येन्द्र सुमाली अपना विकराल खड्ग नागराज के सिर पर तानकर खड़ा हो गया । रावण ने कहा - “ सब कोई सुने , आज से यह बाली द्वीप रक्ष - संस्कृति के अधीन हुआ। हम राक्षस इसके अधीश्वर हुए। जो कोई हमसे सहमत है, उसे अभय ! जो कोई सहमत नहीं है, उसका इसी क्षण शिरच्छेद होगा । पहले तुम , नागराज , अपना मन्तव्य प्रकट करो। यदि तुम हमारी रक्ष- संस्कृति स्वीकार करते हो तो हमारी ओर से इस द्वीप के स्वामी तुम्हीं हो । " “ किन्तु पुत्र यह कैसा अत्याचार है! यह तो विश्वासघात है । " " इस प्रकार की बातें मित्रता-विरोधी हैं , नागराज! जहां समान बल नहीं होता , वहां पर युक्तियुद्ध ही श्रेयस्कर है, ऐसा नीति का वचन है। कहो तुम , क्या तुम्हें रक्ष- संस्कृति स्वीकार है ? " क्रोध - अभिभूत होकर नागराज ने हाथ झटककर कहा - “ नहीं। " और उसी क्षण वज्रपाल की भांति रावण का कुठार नागराज के कण्ठ पर पड़ा । उसका सिर कटकर दूर जा पड़ा । सज्जित सिंहासन खून से लाल हो गया । इसके साथ ही सब दैत्य नागों पर पिल पड़े । न जाने कहां से दैत्यों के दल बादल जैसे भूमि फाड़कर निकल-निकलकर आने लगे । कुछ क्षणों में ही नागों का सफाया हो गया । बचे हुए नाग , गन्धर्व, यक्षों ने रावण की अधीनता स्वीकार कर ली । नागराज के कटे हए सिर को उठा , उसी के रक्त से रावण के मस्तक पर तिलक देकर तथा उसे रक्तप्लुत सिंहासन पर बैठाकर दैत्येन्द्र सुमाली ने विकराल खड्ग हवा में हिलाते हुए जोर से चिल्लाकर कहा - “ वयं रक्षाम : ! ” दैत्यों , नागों, दानवों , गन्धवों, यक्षों ने एक - दूसरे से यही स्वर ध्वनित किया । बाली द्वीप में रावण की आन फिर गई । नागों के उस भव्य प्रासाद को रावण और उसके
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