122. सुसंवाद सूर्य के समान देदीप्यमान ऐन्द्ररथा अपनी सहस्र स्वर्ण- घण्टिकाओं की रनकार से दिशाओं को ध्वनित करता हुआ राम- कटक में प्रविष्ट हुआ। रथ में अखण्ड ध्वज देख राम कटक में हर्ष की लहर दौड़ गई। मातलि ने अश्वों को ललकारते हुए वीर - गर्जना करके कहा - “ अरे, वीरध्वजो, जाओ, रामभद्र से निवेदन कर दो , दुरन्त दुर्जय रावणि इन्द्रजित् मर गया ! “ दुरन्त रावणि मर गया ! " “ दुरन्त रावणि मर गया ! " " दुरन्त रावणि मर गया ! " शत - सहस्र , लक्ष-लक्ष कण्ठों से ये स्वर जय -निनाद के साथ हवा में तैरते हुए वहां पहुंच गए , जहां राघवेन्द्र राम अत्यन्त विकल भाव से शिलाखण्ड पर बैठे – हा सौमित्रि, हा सौमित्रि कह रहे थे। जय -निनाद के साथ विजय - दुन्दुभि भी बज उठी । हर्षातिरेक से उदग्र हो राम ने कहा - “ क्या कहा, क्या कहा! सौमित्रि आ गए ? कहां हैं सौमित्रि, वे सकुशल तो हैं ? अरे, वे अक्षत तो हैं ? शत - सहस्र वानर भटों ने कहा " रावणि दुरन्त मर गया ! " " देवताओं का त्रास मर गया !! " " मृत्युञ्जय मेघनाद मर गया ! " राम ने कांपते हुए दोनों हाथ उठाकर अश्रुओं से धुंधली आंखों से सुग्रीव , हनुमान्, जाम्बवन्त और अंगद को देखकर कहा - " क्या यह स्वप्न है या सत्य है ? दुरन्त दुर्जय इन्द्रजित्... ? ” " मर गया ! मर गया !! ” शत - सहस्र कण्ठों ने कहा। राम ने देखा - स्वर्ण के समान तेजवान् इन्द्र का दिव्य रथ अखण्ड ध्वजा फहराता , सहस्र घंटियों को रणकारता आकर रुक गया । विभीषण और सौमित्रि रक्त में लथपथ रथ से उतरकर राघवेन्द्र की ओर चले। राम ने दोनों हाथ फैलाकर दौड़ते हुए कहा - “ यह मैं क्या सुन रहा हूं ? वीर , क्या अघट घटना हो गई ? तेरे शरीर से झरझर रक्त झर रहा है। रक्षपति मित्र विभीषण का शूल भी टूटा हुआ है । अवश्य ही तुमने कठिन युद्ध किया । " लक्ष्मण ने राम की परिक्रमा कर राघव के चरणों पर मेघनाद का कटा हुआ सिर रख दिया । उन्होंने कहा - “ हे रघुकुलमणि , इन चरणों के प्रताप से यह दास जयी हुआ । दुर्जय मेघनाद मारा गया । विषधर फणी को कुचल दिया गया । देव अब निर्भय हुए। रघुकुल की लाज रह गई । " राम ने रोते हुए, लज्जावनत लक्ष्मण को छाती से लगाकर बारंबार उसका सिर
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