हांफने लगा। कुछ रुककर उसने कहा - “ हे पिता , विदा ! हे अम्ब, विदा ! आपके चरणों से मुझ अपुत्र की विदा! प्रिये सुलोचने , दानव - नन्दिनी , चारु- भाषिणी, प्राणाधिके, विदा! चिर विदा ! " उसकी आंखों से अश्रुधारा और शरीर से रक्तधारा अविरल बह चली। अन्त में उसका सिर गिर गया , नेत्र उलट गए । प्राण - पखेरू उड़ गए । विभीषण शूल फेंक रोते हुए उससे लिपट गए। रोते - रोते वे कहने लगे – “ अरे पुत्र , राक्षसराज रावण के आशास्तम्भ , मन्दोदरी के नयनतारे , सुलोचना प्रमिला के प्राण, तुझे यह क्या हो गया ? उठ वत्स , उठ ! मैंने तो तुझे घुटनों पर खिलाया था । अरे , एक बार उसी भांति हंसकर बोल ! प्रिय , मैं कुलांगार विभीषण तेरा पितृव्य हूं । मैं अभी द्वार खोलता हूं , तू शस्त्र लेकर लंका का कलंक दूर कर । हाय- हाय , राक्षस -कुल का सूर्य तो मध्याह्न ही में अस्त हो गया । अरे वीरमणि , भूतल में क्यों पड़ा है ? अरे, राक्षस - सैन्य जयोल्लास से गरज रही है , श्रृंगीनादी नाद कर रहे हैं । घोड़े भैरवनाद से हिनहिना रहे हैं , राक्षस - सुभट वीर साज सजे तेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं । उठ वीर उठ! " ___ लक्ष्मण ने विभीषण के कन्धे पर हाथ धरकर कहा - “ राक्षसपति , दु: ख का दमन कीजिए, वृथा शोक से क्या लाभ है ! चलिए, अब शीघ्र आर्य राघवेन्द्र की सेवा में पहुंच उनकी आशंका दूर करें । " । उन्होंने गदापति विभीषण को हाथ का सहारा देकर उठाया और गुप्त राह से जैसे आए थे, उसी भांति दोनों वहां से पलायन कर गए।
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