कहा - " हमारा अपराध नहीं है । देवों ने हम पर अन्याय से आक्रमण किया और हमारी स्वर्णलक्ष्मी छीन ली है । हमारे छोटे भाई होने पर भी देवों ने दैत्यों का रक्त बहाया है । ये सदैव हमसे अपमानित होते और मारे जाते रहेंगे परंतु आप हमारे सबके पितामह हैं । आपके यज्ञ में हम चुपचाप यज्ञ को देखेंगे। देवों से विग्रह नहीं करेंगे। यज्ञ समाप्त होने पर स्वर्णलक्ष्मी के विषय में हमारा देवों से विरोध-विग्रह होगा। अभी हमें आप आज्ञा कीजिए कि यज्ञ में हम क्या सेवा करें । अपने कर्तव्य का निर्णय करने में हम समर्थ हैं - स्वतन्त्र हैं । ” । दैत्यों के इन गर्वीले तथा रोषपूर्ण शब्दों को सुनकर विष्णु ने रुद्र से सलाह ली । तब रुद्र ने कहा - "इस समय आप चुप रहें । ये सब दैत्य , ब्रह्मा- वरुण से नियन्त्रित हैं । हमारे बान्धव हैं । इस समय आप कुछ बोलेंगे तो ये क्रुद्ध हो सकते हैं । आपने इनकी लक्ष्मी हरण की है । अत : इन्हें क्रुद्ध करना उचित नहीं हैं । यज्ञ की समाप्ति पर युद्ध, विग्रह या सन्धि जो कुछ होगा , देखा जाएगा । " वरुण ने भी दैत्यों को समझा- बुझाकर शान्त किया और कहा - “ देवों के साथ विरोध- भावना त्याग दो और मित्रभाव से यज्ञ में भाग लो । " दैत्यों ने कहा - “ देव हमारे छोटे भाई हैं , उन्हें यहां हमारी ओर से कोई भय नहीं है । आप अपना यज्ञ सम्पन्न कीजिए । " अन्तत : बहुत वाद-विवाद के बाद दैत्यों के नेता हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद से देवों की सन्धि हुई। विष्णु ने वचन दिया कि अब दैत्यों का रक्त पृथ्वी पर नहीं गिरेगा । इसके बाद प्रह्लाद ने भी विष्णु की मित्रता का वचन दिया । इस प्रकार देवों और दैत्यों में एक बार सन्धि हो गई ।
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