118. रथीन्द्र - वध अगम्य , सहस्र - सहस्र सुभट- रक्षित निकुम्भला यज्ञागार में रथीन्द्र इन्द्रजित् कुशासन पर अकेला बैठा था , रक्त कौशेय और यज्ञोपवीत पहने । भाल पर रक्तचन्दन का लेप, कण्ठ में जपापुष्प की माल। धूपदानों में गन्धद्रव्य जल रहे थे, एक सहस्र घृत के दीपक जल रहे थे। नीलोत्पलों का ढेर लगा था । स्वर्णघटों में समुद्र-जल भरा था । सम्मुख स्वर्णघट था । रत्न -पात्रों में पूजा -सामग्री थी । रथीन्द्र निमीलितनेत्र वेद -मन्त्र पाठ कर आहुति दे रहा था । क्षुधातुर व्याघ्र जैसे गोशाला में प्रविष्ट होता है, उसी भांति बली सौमित्रि ने झपटते हुए ,विकराल देवदत्त खड्ग कोश से खींच , रथीन्द्र को ललकारा। ललकार तथा शस्त्रों की झनझनाहट सुन रथीन्द्र मेघनाद ने चौकन्ने होकर नेत्र खोल , सौमित्रि की सौम्य मूर्ति को देखा। उसने समझा , प्रसन्न हो भगवान् वैश्वानर ने ही प्रत्यक्ष दर्शन देने का अनुग्रह किया है। उसने उठकर , दूर ही से भूतल में गिर, साष्टांग प्रणाम कर बद्धांजलि हो कहा - “ देव वैश्वानर , यह दास आज आपकी आराधना कर रहा है, क्या इसीलिए आपने इस रूप में प्रकट होकर दास पर अनुग्रह किया है ? हे देव , मैं आपको प्रणाम करता हूं ! लक्ष्मण ने कहा - “ सावधान रावणि , मैं वैश्वानर नहीं तेरा काल सौमित्रि हूं। मैं अभी तेरा वध करता हूं। " मेघनाद ने भयभीत होकर विस्मित नेत्रों से सौमित्रि को देखकर कहा - “ तू सौमित्रि मानव है! कह , किस कौशल से तू इस अगम्य यज्ञागार में घुसा ? इसका प्राचीर दुर्लंघ्य है, असंख्य योद्धा चक्रावलि के रूप में चारों ओर शस्त्रपाणि घूम रहे हैं , द्वार पर दुर्जय योद्धाओं का पहरा है। देवों और मानवों में ऐसा कौन वीर जन्मा है जो अकेला इस रक्षित आगार में आने का साहस कर सके ? नहीं - नहीं, आप अवश्य ही भगवान् वैश्वानर हैं । इस दास को प्रवंचना से मुक्त कर वर दें कि मैं राम का वध कर लंका को निश्शंक करूं । देखिए, सेनाएं श्रृंगनाद कर रही हैं , मैं अब विलम्ब नहीं कर सकता। " लक्ष्मण ने कहा - “ अरे दुरन्त रावणि, मैं तेरा काल यहां उपस्थित हूं। आयुहीन जन को काटने के लिए काल - सर्प धरती को फोड़कर निकल आता है। रे देवकुलद्रोही , आज मैं यहीं तेरा हनन करूंगा। " सौमित्रि खड्ग लिए आगे बढ़ा । मेघनाद ने पीछे हटते हुए कहा - “ ठहर , तू यदि सत्य ही रामानुज लक्ष्मण है, तो मैं अभी तेरी युद्ध- कामना पूरी करता हूं । हे वीर, तू मेरे धाम में पहली बार आया है, इसलिए शत्रु होने पर भी अतिथि है, क्षण- भर मेरा आतिथ्य ग्रहण कर । मैं तनिक वीर- साज सज लूं , अस्त्र ले लूं । " लक्ष्मण ने गरजकर कहा - “ अरे मूढ़, बाघ के जाल में फंसने पर क्या किरात उसे
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