में यही एक उसकी सदय सखी थी । उसने कहा- “महाभागे, सब दुष्ट चेटियां तुम्हें छोड़कर आज महोत्सव देखने चली गईं । वे सब मद्य पी - पीकर मत्त हो नृत्य - गान कर रही हैं । इसी से सुयोग पा , मैं तुम्हारी चरण- वन्दना करने आई हूं । " सीता ने अश्रुपूरित दृष्टि से सरमा को देखकर कहा - “ हे सखी , इस राक्षसपुरी में तू ही मुझ पर सदय है । हाय , मैंने तो कभी स्वप्न में भी किसी प्राणी का अहित -चिंतन नहीं किया । पिता की आज्ञा से जब आर्यपुत्र राज्य त्याग चुपचाप वन चल दिए, तो छाया की भांति मैं भी उनके पीछे चल दी । हम गोदावरी के तट पर उसी प्रकार रहते थे, जैसे ऊंचे वृक्ष पर कबूतर - कबूतरी घोंसला बनाकर रहते हैं । बिना किसी को दु: ख दिए हम कन्द, मूल , फल खाकर रहते थे, दुःखार्तों की सेवा करते थे । आर्यपुत्र के सान्निध्य में तो मैं राजसुख को भूल ही गई थी । हमारी पर्णकुटी में फूलों का सौरभ वहां के पवन को सुखद बनाता था । मोर - मोरनी हमारी कुटी के द्वार पर नृत्य करते थे। वन के हाथी - हथिनी और मृग- शावक निर्भय मेरे निकट आते थे। पक्षी विविध कलरव कर हमारा मनोरंजन करते थे। मैं फूलों की , फलों की , पक्षियों की , वृक्षों की , पशुओं की , मृगशावकों की समभाव से प्रीति - सहित सेवा करती थी , आदर और यत्न से । सरोवर का निर्मल सलिल मेरा आरसी था । आर्यपुत्र नित्य ताजे शतदल कमल सरोवर से लाते थे और मेरी वेणी में अपने हाथों से गूंथते थे। हाय ! किस दुर्भाग्य से मेरे वे सुदिन लुप्त हो गए ! अब क्या मेरे ये दग्ध चक्षु इस जीवन में उन पादपद्मों को देख सकेंगे? " इतना कहकर वैदेही शराघात से विद्ध पक्षी की भांति सरमा की गोद में गिरकर रोने और छटपटाने लगी । सरमा ने कहा - "विधुमुखी, इस प्रकार हताश और कातर न हो ! मेरी बात सुनो , शिलाएं सागर की लहरों पर तैर रही हैं । महातेज , दुरंत , दुर्जय , सर्वजयी , देव , दैत्य - नर त्रास कुम्भकर्ण का छिन्न -भिन्न शरीर सागर - तट पर पड़ा है। रावण के सब पुत्र , परिजन , सुभट , गुल्मपति , अजेय योद्धा मरण - शरण हो गए। त्रिभुवन विजयी योद्धाओं की लाशें सागर - तट पर गिद्ध और शृगाल खा रहे हैं । लंका अब वीरशून्य हो गई। रक्षेन्द्र रावण शोकदग्ध , भग्न -मन ठंडी सांसें लेता है । मणिमहालय के सब रास -रंग मौन हैं । लंका पर चीलों और गिद्धों के मंडराने से अशुभ छाया छा रही है । अब लंका की विधुमुखी युवतियां मंगल - गान नहीं करतीं , वे अपने नव वैधव्य के दुर्भाग्य में मग्न विलाप करती हैं । लंका के घर - घर शोक मूर्तरूप घूम रहा है। यह अब वह लोक -विश्रुत लंका नहीं रह गई है। हे रघुवधू, रक्षेन्द्र की आशा का आधार अब केवल यही दुरन्त , सर्वजित् मेघनाद है । यह रौद्र तेज से सम्पन्न , दिव्यास्त्रों से सज्जित, अमित वीर्यवन्त पुरुष है। इसके मरते ही रक्षेन्द्र को तुम मृतक ही समझो और लंका का यह आज का हर्षोल्लास तो बुझते हुए दीपक की लौ है। " सरमा के ये वचन सुन सीता आश्वस्त होकर बोली - “किन्तु सखी, यह दन्त रिप दो - दो बार दोनों रघुकुमारों को जय कर चुका है। आज ही सुना है, वह पूर्ण रौद्र तेज से अभिभूत हो , साक्षात् कालरूप समरांगण में जा रहा है । आज कैसे इस दुरन्त शत्रु से आर्यपुत्र की रक्षा होगी ? " सरमा ने कहा- “ देवि , मेरी बात सुनो, दिव्यास्त्रों के रहते रौद्र तेज सम्पन्न इस
पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४२३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।