115 . वैदेही - वैकल्य राहु चन्द्रमा को छोड़ देगा , जगत् सुधांशु को देखकर तृप्त होगा , इस आशा में राक्षस घर - बाहर आनन्दमत्त लंका में घूम रहे थे। उनके हर्षानाद, जय - कल्लोल , वीणा, मुरज, मुरलि -निनाद , वेदध्वनि , आह्लाद - प्रस्तार देख; हाथी- घोड़ों का , सेना का प्रचण्ड घोष , दुन्दुभि का मेघ - गर्जन , भेरी- स्वर सुन - सुनकर पिंजरबद्ध कुकरी की भांति असहाया , भयत्रस्ता, पतिवियुक्ता , रामसखी सीता -विधुमुखी -जनकनन्दिनी अशोक कानन में शोकविदग्धा बैठी भाग्य के झकझोरों में उलझी अकेली अश्रुपात कर रही थी । रक्षिका राक्षसियों का दल उत्सव- कौतुल देखने चला गया था । राम - कटक को अकंटक पारकर वामानल सहित वीरांगना प्रमिला सुन्दरी दैत्यनन्दिनी हठात् लंका में आई है । अरिन्दम दुर्जय , वीरेन्द्रधुरी इन्द्रजित् आज राम - लक्ष्मण का वधकर लंका का उद्धार करने निकुम्भला यज्ञागार में वैश्वानर की उपासना करेगा , ये सब समाचार उस तक भी कृत -विकृत हो पहुंच रहे थे । इस शत्रुपुरी में कौन उसका सहायक है , कौन उस साध्वी के दुःख को देखने वाला है ? उसके लिए भगीरथ प्रयत्न कर दुर्लंघ्य समुद्र को शिलाओं से बांध, धीर - वीर , दृढ़प्रतिज्ञ राम वानर - कटक लेकर आए हैं । दो - दो बार महाबली दुर्जय रावणि ने उन्हें परास्त कर मृत्युबाणों से बींधा है। आज फिर वह अजेय भीमविक्रम इन्द्रजित् रुद्रसान्निध्य से सम्पन्न , वैश्वानर - वरलब्ध , राघवेन्द्रों के प्राणों का वैरी, सम्पूर्ण राक्षस - कटक सम्भार सम्पन्न कर रहा है। हाय , आज तो प्रलय ही हो जाएगी । कौन काल - समर में आज राघव - बन्धुओं की रक्षा करेगा ? अरे , मुझ हतभागिनी के लिए आर्यपुत्र के प्राण दो - दो बार संकट में पड़ चुके हैं । अब आज क्या होगा , कौन जानता है ! अरे, किसी ने भरत को हमारी इस विपदा की सूचना नहीं दी । अभी तक अयोध्या से रघुओं की अक्षौहिणी सेनाएं नहीं आईं । अरे , इस वीर मेघनाद ने तो देवेन्द्र को भी बांध लिया था । अब ऐसा कौन है जो रघुमणि की इस काल सर्प से रक्षा करे ? मैंने ही क्या कुमति की जो जीवित रही और आर्यपुत्र को यहां बुलाकर संकट में डाल दिया । हाय , अब क्या होगा ? आज क्या होने वाला है ? पवन से इस अशोक वन के पत्ते हिलहिलकर मर्मर शब्द कर रहे हैं जैसे वे भी मेरे विषाद से हिल -हिलकर विलाप कर रहे हों । शाखाओं के पक्षी जैसे मेरे ही दु: ख में रुदन कर रहे हैं , कुसुमराशि तरुमूल में पड़ी है, मानो वृक्षों ने मनस्ताप से तप्त होकर अपना श्रृंगार छिन्न -भिन्न कर डाला है । नदियां जैसे रोती हुई सागर - वक्ष पर पछाड़ खा रही हैं । हाय , अब इस विपत् सागर से कौन रघुकुल को उबारेगा ? " वैदेही वैकल्य -भाव में मग्न , अकेली बैठी अश्रुपात कर रही थी । एक ही मलिन वस्त्र उसके अंग पर था । उसने घुटनों को वक्ष में छिपा लिया था । सिर झुककर वक्ष पर मिल गया था । शोकशीर्ण उसका क्षीण कलेवर, ग्रीष्म - शुष्क पार्वत्य नदी - सा हो रहा था । इसी समय सरमा राक्षसी आकर रोती हुई सीता के चरणतल में बैठ गई । उन निर्दय राक्षसियों के वृन्द
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