" वही है प्रियतमे ! " “ शरवन से तो यह अति मनोरम है, इसी से कैलासी शरवन को छोड़कर यहां आ बसे हैं । ” ___ " तब क्या ! तू तो जानती ही है कि कामदहन के समय ही रुद्र ने क्रुद्ध हो शरवन भी भस्म कर दिया था । अब तो उसे अगम्य क्षेत्र मान लिया गया है । नृवंश के चरण वहां नहीं पड़ सकते। " " देखो तो प्रियतम , यह निर्मल निर्झर कैसी शोभा धारण कर रहा है । इसकी शुभ्र जल - राशि , श्याम शिला पर ऐसी प्रतीत हो रही है, जैसे श्यामा वामा ने उत्तरांग में चन्दन लगाया हो । ” “ ऐसा ही है, लो आ गए हम कैलासधाम के द्वार पर । वह देख, द्वार मधुर निनाद से आप ही खुल गया । धूर्जटि के किंकर इस दास के इस ऐरावत को पहचानते हैं । यहां कैसे पक्षी कलरव गान कर रहे हैं ! सरोवर में पद्म अभी , सूर्योदय अच्छी तरह न होने के कारण , पूरे खिले नहीं हैं । वे कुछ मुंदे- से , कुछ खिले - से ऐसे प्रतीत हो रहे हैं , जैसे लज्जावती नववधू ने भोर में कुसुमारुण शय्या त्याग व्रीड़ावनत हो अपना कमलवदन ढांप लिया हो । " ___ “ और निर्मल जल में जो बालारुण की रक्तिम रश्मियां खेल रही हैं , वे ऐसी प्रतीत हो रही हैं जैसे ढीठ नायक उस व्रीड़ावनता लज्जावती का अवगुंठन हटाने को उंगलियों से गुदगुदा रहा हो । " देवाधिदेव के किंकरों ने ऐरावत को घेर लिया । देवेन्द्र शची सहित हाथी से उतर शैलबाला अम्बिका पार्वती की सेवा में किंकरों के बताए मार्ग पर चलकर जा पहुंचे। अम्ब स्वर्णासन पर बैठी थीं , जया चंवर डुला रही थी , विजया छत्र लिए थी । महेन्द्र ने इन्द्राणी सहित महामाया अम्बिका के चरणों में प्रणाम किया। अम्ब ने हंसकर शची को अंक में बैठाया और सिर संघा । देवेन्द्र की ओर कृपा कटाक्ष कर कहा - “ देवेन्द्र, देवकुल में , देवलोक में कुशल तो है? अब फिर कोई नया झंझट तो नहीं आ खड़ा हुआ ? ” “ अम्ब , देवद्रोही लंकापति रावण और दुर्जय रावणि पर जब धूर्जटि का अनुग्रह है , तब तक भला देवलोक और देवकुल में कुशल कहां ? देवकुल तो उस दुरन्त रावण से लड़ ही नहीं सकता और मुझ दास को उसके दुरात्मा पुत्र का कन्धे पर कलश रख तीर्थोदक से ऐन्द्राभिषेक करके ही मुक्ति मिली । मेरा विकराल वज्र भी उस दुरात्मा के अक्षय तूणीर और दिव्य धनु के सामने निस्तेज हो गया । " “किन्तु अब तो रावण का देवकुल से कोई विग्रह नहीं है ? " “ अब, रावण और उसका वह पुत्र, जो अब मुझ दास को कलंकित करने के लिए इन्द्रजित् कहाता है, जब तक जीवित है, तब तक सब देवकुल के साथ आपका यह दास मृतक ही है। उसने देवों ही की नहीं, आर्यों की परम्परा भी भंग की है । वह देव , दैत्य , असुर , नाग, गन्धर्व, समागत सभी को एक करना चाहता है। उसकी यज्ञविधि भी हमारे अनुकूल नहीं है । " ___ “ उनके कार्यों और आदर्शों से तो देवाधिदेव सहमत हैं । वह और उसका पुत्र दोनों ही देवाधिदेव के किंकर हैं , फिर तुम मुझसे और देवाधिदेव से उसके अमंगल की क्यों आशा
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