111. धूर्जटि के सान्निध्य में पौलोमी शची इन्द्राणी ने मदन -प्रिया रति को बुलाकर कहा - “ अरी मन्मथ-वधु, आज मैं हेमवती शैलसुता उमा की चरण - शरण में कैलास जा रही हूं। आ , तू मुझे शृंगारित कर दे । ” रति ने हंसकर इन्द्राणी को सुवासित तैल लगा केशविन्यास किया; हीरा - मोती , मणिखचित भूषण, चन्दन , कुंकुम और कस्तूरी आदि सुगन्धों का लेप अंग - उपांगों पर किया । फिर रत्नसंकलित , आभायुत पट - वस्त्र धारण कर पैरों में महावर दी । शची का रूप हेमकान्ति के समान देदीप्यमान हो उठा । इस रूप -माधुरी को देखकर रति ने हंसते-हंसते कहा - “ देवि , इस भुवनमोहन रूप को लेकर तुम भवन से बाहर कैसे जाओगी ? इस रूप को देखकर तो जगत् मत्त हो जाएगा । तुम्हारे अधरामृत को देख देव - दैत्य अमृत को भूल जाएंगे । वेणी को देख नाग लजाकर भाग जाएंगे । उन्नत कुचों को देख मन्दराचल अचल हो जाएगा। " रति के ये वाक्य सुन चारुमति शोभना शची ने अपने अवयवों को ऐसे ढक लिया जैसे भस्म - राशि से अग्नि ढकी जाती है । वह गंधावृत्त उषा की भांति हस्तिदन्त- रचित गृहद्वार से बाहर आई। देवेन्द्र ने पौलोमी शची सहित देव -लोक से कैलास को प्रस्थान किया। हिमगिरि श्रृंग पर हेमकूट के समान धवलध्वज ऐरावत धीर - मन्थर गति से ऊध्वगत होता जा रहा था । निरभ्र आकाश में बालोदित अरुण की स्वर्णाभा से हिमश्रृंग की शोभा अकथ्य हो रही थी । उस शोभा को निरख देवेन्द्र ने कहा - “पौलोमी , प्रस्फुटित कमल से जैसे मृणाल की शोभा बढ़ती है , वैसे ही तेरे सान्निध्य में मैं सम्पन्न हूं । " ___ शची ने हंसकर कहा - “ठीक ही तो है, पारिजात- परिमल के कारण ही पवन का आदर होता है। परन्तु , अम्ब से मैं कहूंगी क्या , यह तो बताओ? " “ जैसा अवसर हो । तू तो प्रत्युत्पन्नमति है। वह दुष्ट इन्द्रजित् नामधारी राक्षस जैसे मरे , वही तू कर। ” ____ " तो धूर्जटि की सेवा में क्यों ? पितृचरण में चलकर क्यों न निवेदन करें ? वह तथाकथित इन्द्रजित् क्या पितृचरणों का भी साम्मुख्य करने की सामर्थ्य रखता है ? " । “प्रिये, उसकी सामर्थ्य का अन्त नहीं है । धर्जटि को छोड़ हमें और आसरा नहीं है । हमें धूर्जटि को उस दुरात्मा से विमुख करना ही होगा । " “ अम्ब क्या मेरे कहने से सुनेंगी ? “ क्यों नहीं, त्रिभुवन में कौन है जो तेरे कटाक्षपूरित अनुरोध को टाल सके ? फिर , अम्ब तो तुझ पर बाल्यकाल से सदय हैं । " ___ “ कैलास पर क्या हम आ पहुंचे? यह पर्वत जो श्याम तरुराशि में है, इसके उस पार, वह जो स्वर्णिम उत्तुंग हिमकूट है, वही तो कैलास है! "
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