पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/४०१

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हो रही है । अब यहां कोकिलकण्ठी दिव्य बालाओं की मधुर - तान सुनाई नहीं देती । अब तो सद्य: विधवाओं के नयन -नीर लंका के राजपथ पर बह रहे हैं । हे वीर चूड़ामणि , अब तू कमर कस और जगदीश्वर का संकट टाल । उस दुरात्मा राम को भाई सहित मारकर लंका के अकंटक राज्य को पुनर्जीवित कर! । धाय के वचन सुन क्रोध में भरकर इन्द्रजित् मेघनाद ने अपने कण्ठ में पड़ी कुसुम माला को तोड़कर फेंक दिया । कानों से हीरक - कुण्डल खींच पद तल में रौंद डाले । मणिमय पान -पात्र दूर फेंक दिए । उसने सिंह-विक्रम से कहा - “धिक्कार है मुझे! वैरी ने स्वर्ण-लंका को आक्रान्त किया है और मैं यहां रमणी -दल में विहार कर रहा हूं ? ” उसने गरजकर कहा - “लाओ मेरा रथ , मेरे शस्त्र और कवच! मैं अभी रिपुदल का संहार करूंगा। " ___ रथीन्द्र ने तत्क्षण ही वीराभरण सजा । रथचक्र विद्युत् - छटा दिखाने लगा । अब सुन्दरियों में मूर्धन्या सुलोचना प्रमिला ने अपने को उसके वक्ष पर डालकर कहा - " हे वीरमणि , तुम मुझ दासी को यहां खण्डित कर कहां चले ? अरे , तुम्हारे वियोग में मैं एक क्षण भी नहीं जी सकती । हे प्राणेश्वर , किस अपराध पर तुम आज मुझ किंकरी को त्याग रहे हो ? " मेघनाद ने हंसते हुए कहा - “प्रिय , तूने जिस स्नेह- बन्धन में मेघनाद को बांध रखा है, उससे मुक्त होने की सामर्थ्य भला मुझ दास में कहां है ! अरी सुभगे , तू चिन्ता न कर । मैं उस भिखारी राम का भ्राता - सहित समर में नाशकर शीघ्र ही लौट आऊंगा। अब तू मुझे जाने दे। " इतना कह, बलपूर्वक प्रेममयी प्रमिला के आलिंगन से छूट रथी रथ पर चढ़ गया । रथ घोर रव से इस प्रकार चला , जैसे मैनाक शैल पंख फैलाकर उड़ चला हो । सुलोचना प्रमिला छिन्न लता - सी भूमि पर गिर गई ।