मानता। अब आप अपने भवन में निश्चिन्त आनन्द कीजिए। मैं समरांगण में जाता हूं। मैं आज ही राम - लक्ष्मण सहित सम्पूर्ण वानर सेना को रण में जय करके ही रक्षेन्द्र का मुख देखूगा। वानरों के रक्त - मांस से राक्षसों का तर्पण करके राम - लक्ष्मण का गर्म रक्त स्वयं पान करूं , तभी मैं महातेज कुम्भकर्ण,विश्रवा का पुत्र कहाऊं । हे राक्षसेन्द्र, अब सन्ताप छोड़ दें , रोष को त्याग दें , स्वस्थ हों , मैं आपका सब ताप हरूंगा। आपके वैरी का समूल नाश कर डालूंगा । जो हित वचन मैंने कहे , वे तो बन्धु - भाव से , भ्रातृस्नेह से कहे थे। अब आप शीघ्र शत्रु का क्रन्दन सुनेंगे। राम - लक्ष्मण को अब मरा ही समझिए। राम , लक्ष्मण , सुग्रीव और हनुमान् को तो मैं भक्षण ही करूंगा। ” । इतना कह महातेज, अमितविक्रम कुम्भकर्ण ने रक्षेन्द्र की प्रदक्षिणा की और सिर नवाकर प्रणाम किया । रावण ने आलिंगन कर रथिश्रेष्ठ, यम , वरुण से भी अवध्य महाबल कुम्भकर्ण को अश्व , गज , रथ तथा महारथ के सहस्र गुल्म दिए । विजय की दुन्दुभि और भेरीनाद से दिशाओं को प्रकम्पित करता हुआ अजेय गिरिकूट के समान महाकाय कुम्भकर्ण समरांगण में प्रविष्ट हुआ ।
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