अपमानित कर शत्रु की गोद में धकेल दिया और मेरी भी अवमानना की । आज उसी का दुष्परिणाम आपके सामने आ रहा है । अपने हित की बात न मानकर अपने बल के घमण्ड पर आपने यह कुकर्म कर डाला , जो आप जैसे प्रतापी जगज्जयी के लिए अशोभनीय था । आप महाप्रज्ञ , सब शास्त्रों के ज्ञाता , वेदोपदेष्टा जगदीश्वर हैं , पर आपने परिणाम पर विचार ही नहीं किया । महाराज , जो काम देश - काल के विपरीत किए जाते हैं उनसे तो दु: ख होता ही है । जो राजा नीतिशास्त्र के विपरीत आचरण करता तथा अपने मन्त्रियों की शुभ सम्मति की अवहेलना करता है, वह सदा ऐसे ही दु: ख भोगता है। परन्तु जो राजा मन्त्रियों की उचित राय को स्वीकार कर लेता है तथा अपने सुहृज्जन को ठीक - ठीक पहचानता है , वह कर्तव्याकर्तव्य का ठीक -ठीक निर्णय कर सकता है । नीतिनिपुण पुरुष धर्म, अर्थ, काम इन तीनों का यथासमय उपभोग करता है। जो नृपति अपने बुद्धिमान् हितैषी मन्त्रियों से परामर्श करके समयानुसार साम , दाम , दण्ड , भेद और पराक्रम इन पांच प्रकार के योग का , नीति - अनीति का , धर्म, अर्थ, काम का यथावत् सेवन करता है, उसे कभी भी ऐसे संकट का सामना नहीं करना पड़ता । इसलिए राजा को तो अर्थशास्त्री मन्त्री की सम्मति पर ही चलना चाहिए, परन्तु जो मन्त्री अहित की बात को हित का रूप देकर कहते हैं , वे निश्चय ही आपके और समूची रक्ष जाति के शत्रु हैं । खेद है कि लंका में ऐसे ही मन्त्रियों की प्रधानता है । यही देख मैंने राजसभा से किनारा किया । अब मुझसे आपका क्या प्रयोजन है ? " भाई कुम्भकर्ण के ऐसे नीति वाक्य सुन रावण चुपचाप पृथ्वी की ओर देखता रहा । उसके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला। कुम्भकर्ण ने फिर कहना आरम्भ किया - “ महाराज , जो राजा अपनी चंचल बुद्धि के कारण हितैषी पुरुषों को नहीं पहचानते , वही राजा शत्रुओं के अधीन होते हैं और जो राजा शत्रु की उपेक्षा कर अपनी रक्षा का प्रबन्ध नहीं करते , वे ही विपत्ति में पड़ते हैं । आपकी राजमहिषी भगवती मन्दोदरी ने भी यही उचित राय दी थी । भाई विभीषण ने भी यही कहा था और मेरी सम्मति भी उन्हीं के अनुकूल थी , पर आपने कुछ भी विचार नहीं किया । अपने हठ पर अड़े रहना ही आपने ठीक समझा । “ महिदेव , सोचिए तो , कहां आपकी कनक लंका और कहां अयोध्यापुरी! कहिए भाई, किस लोभ और किस कारण राम यहां आया है ? मैंने तो सुना है - यह क्षुद्र नर सरयू तीर बसता था , पर क्या वह आपका स्वर्ण-सिंहासन पाने के लिए यहां आकर युद्ध कर रहा है ? हे वीर , उसे आप शत्रु कहते हैं , पर विचार तो कीजिए, इस कालरूप समराग्नि को किसने लंका में प्रज्वलित किया है, रक्षेन्द्र , आप तो स्वयं ही अपने कर्म -दोष से लंका को डुबोकर स्वयं भी डूब रहे हैं । ” रावण ने खिन्न - मन होकर कहा - “ कुम्भकर्ण, तू मेरा इस प्रकार तिरस्कार क्यों करता है ? भाग्यदोष से दोषी की निन्दा कोई नहीं करता। ” इतना कह रावण शोक-निमग्न हो बैठ गया । यह देख कुम्भकर्ण ने खड़े हो ऊध्वबाहु होकर कहा - “ अथवा इन बातों से अब क्या ? मैं रक्षेन्द्र का अनुगत हूं । अन्नभुक्त हूं , आश्रित हूं। लंका का संकट मेरा भी संकट है । राक्षसों का क्षय मेरा भी क्षय है । मैं जगज्जयी रक्षेन्द्र का सहोदर हूं। जो आपका शत्रु है, मेरा भी है। मैं जब तक जीवित हूं , रक्षेन्द्र को क्या चिन्ता है! मैं पृथ्वी के किसी वीर की आन नहीं
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