106 . महातेज कुम्भकर्ण जैसे अंशमाली भवनभास्कर उदयाचल में चढ़ता है, उसी प्रकार महातेज , जगज्जयी रावण लंका के कोट कंगूरों पर चढ़कर , समर - क्षेत्र का निरीक्षण करने लगा । उसने एक विषादपूर्ण दृष्टि लंका के अपरिसंख्य स्वर्ण राजमन्दिरों पर डाली, जो अपनी मनोहरता से मन को मोह लेते थे। पुष्प - वाटिकाओं में कनक विहार -हर्म्य, कमलालयों में सरोवर की रजत - छटा तथा पुष्पित तरुराजि युवती के यौवन की भांति नेत्रों में मद दान देते थे। नगर की हाट - बाट रत्नों से भरी - पूरी थी , जैसे विधाता ने जगत् की सम्पदा सुचारु स्वर्ण-लंका के पदतल में पूजा - विधि से सजाई हो । हाय , आज यह राक्षसपुरी श्रीहीन शव की भांति हो रही है! उन्नत , अटल, अचल , प्राचीरों पर सिंहविक्रम भट जो निर्भय सिंह की भांति घूमते थे, वे अब कहां हैं ? लंका के सिंहद्वार सब बन्द हैं । उनके आस -पास असंख्य रथ, गज , अश्व और पदातिकों की रेल -पेल हो रही है । दूर तक फैली हुई बालुका में राम- सैन्य ऐसी दीख रही है, जैसे आकाश में नक्षत्र । वह देखो, पूर्व द्वार पर संग्राम में दुर्निवार वीर नल, केहरी के समान सावधान बैठा है । दक्षिण द्वार पर हाथी के समान असमबल अंगद और पश्चिम द्वार पर मारुति हनुमान् सिंहनाद कर रहा है और उत्तर द्वार पर श्रीहीन राम – कौमुदीहीन चन्द्र के समान- सुग्रीव, विभीषण और लक्ष्मण के साथ आसीन हैं । एक मास से इन्होंने तो मेरी लंका को ऐसा घेर लिया है, जैसे व्याध गहन कानन में सिंहिनी को जाल में फंसा लेता है । शृगाल , गिद्ध, शनि, श्वान और पिशाच निर्भय कोलाहल करते विचर रहे हैं । मृतकों की आंतों को खींच - खींचकर परस्पर लड़ रहे हैं । कोई रक्त पीकर तृप्त हो रहा है । मरे हए हाथी कैसे भयानक प्रतीत हो रहे हैं ! कितने रथ , रथी, अश्व, सादी , निषादी , शूली चकनाचूर खण्ड- खण्ड पड़े हैं । टूटे - फूटे भिन्दिपाल, वर्म , चर्म, असि , धनु , तूण, शर, मुन्द्र और परशु पड़े हैं । तेजस्कर वीरों के शिरस्त्राण, मणिमय किरीट और कभी उन्हें धारण करने वाले सिर लुढ़क रहे हैं । हाय , हाय, जैसे किसान धान काटता है उसी भांति इस भिखारी राम ने मेरा सब कटक काट डाला है । उसने आंख उठाकर दूर तक फैले हुए अनन्त सागर को देखा, सागर में बंधे सेतु को देखा , जिस पर बली वानरों का पहरा था । रावण ने दोनों हाथ फैलाकर कहा - “ वाह रे , जलदलपति , क्या ही सुन्दर विजयमाल तूने कण्ठ में डाली है। अरे, अधम सागर, आज तू भी बन्धन में पड़ गया ! रे जलदलपति , धिक्कार है तुझे ! अब तू न अजय रहा न अलंघ्य। तू भी इस दाशरथि राम का क्रीत दास हो गया । तूने भी दासत्व की बेड़ियां पहन लीं । अरे निर्लज्ज , उठ ! इस सेतु को तोड़ - फोड़कर इस प्रबल रिपु को अतल तल में डुबोकर मेरे हृदय की ज्वाला को शान्त कर । अरे , तेरे ही बल पर स्वर्ण -लंका अजेय कहाने का गर्व करती थी । "
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