104. हर्ष -विषाद शरविद्ध राम - लक्ष्मण को नि : स्पन्द , निश्चेष्ट , मृतवत् रण - भूमि में निपतित देख , वानरेन्द्र सुग्रीव भय और शोक से भर गया । दोनों नर - शार्दूलों के अङ्गोपाङ्ग बाणों से छिदे पड़े थे । वे अत्यन्त मन्द वेग से धीरे - धीरे श्वास ले रहे थे। वानरेन्द्र सुग्रीव को भयभीत , वाष्पलोचन , दीन , क्रोध से व्याकुल देख राक्षसमणि विभीषण ने कहा - “ अलं त्रासेन सुग्रीव , निगृह्यतां वाष्पवेग :, एतौ महाबली महात्मानौ मूर्छितौ हि नाम , मृत्युकृतं भयं नास्ति , न कालोऽयं क्लैव्यमवलम्बितुम्। तस्मात् वारनेन्द्र, आत्मानं पर्यवस्थापयतु, सर्वकार्यविनाशनं क्लैव्यमुत्सृज्य , रामपुरोगाणां च सैन्यानां हितमनुचिन्तय । अथवा रक्ष्यतां रामो यावत्संज्ञाविपर्यय :। आत्मानमाश्वासव, स्वकं बलं चाश्वासय , अहं च सैन्यानि सर्वाणि पुन : संस्थापयामि । ” इस प्रकार सुग्रीव को आश्वासन दे, गदापाणि विभीषण द्रुतगति से सेना में घूम फिरकर वानरों को प्रबोध देने और वानर - सैन्य को व्यवस्थित करने लगे । वानरों के यूथ चारों ओर से आ - आकर राम को घेर उनकी यत्न से रक्षा करने लगे। वे बड़े चौकन्ने हो इधर उधर , ऊपर -नीचे बड़ी सावधानी से राक्षसों को जांचने लगे । इसी समय वीर्यवान स्थिरसत्त्व राम की मूर्छा खुली । उन्होंने पास ही भूमि पर , नि :स्पन्द, निश्चल , बाणविद्ध, रक्तप्लुत , लक्ष्मण को पड़े देखकर कातर होकर कहा - “ अब सीता को लेकर और जीवित रहकर मैं क्या करूंगा! इन नेत्रों से मैं आज अजेय लक्ष्मण को इस प्रकार भूमि में सोता देख रहा हूं! मैं अब माता कौशल्या , कैकेयी और सुमित्रा से क्या कहूंगा , जो पुत्र - दर्शन की लालसा से ही जी रही हैं ? भरत शत्रुघ्न को ही मैं क्या उत्तर दूंगा ! अरे , ये तो आग्रहपूर्वक मेरे साथ वन में आए थे। अब इनके बिना मैं अयोध्या कैसे जा सकता हूं ? अरे लक्ष्मण तू तो अवसाद करने पर मुझे आश्वासन देता था । आज मुझे आर्तनाद करता देख बोलता भी नहीं है ! अरे , जैसे तू मेरे साथ - ही -साथ वन में आया था , अब वैसे ही मैं तेरे साथ मृत्यु की शरण जाऊंगा। मित्र सुग्रीव , तू अंगद और सब सैन्य को लेकर किष्किन्धा लौट जा । अरे मित्र, तूने खूब मित्रता निभाई । मित्र को जो करना चाहिए, वह सब तूने किया । मित्र का धर्म तूने पूरा कर दिया । अब मेरी अनुमति से तू सैन्य - सहित घर लौट जा ! " इसी समय विभीषण सब सैन्य को व्यवस्थित कर वहां लौटे । उन्होंने राम को शरविद्ध और लक्ष्मण को भूलुण्ठित देख व्यथित हो जल हाथ में लेकर उनके नेत्रों का मार्जन किया । फिर शोक से रो पड़े । इसी समय ज्वलन्त अग्नि के समान वैनतेयगरुड़ वहां पहुंचे। उन्होंने दोनों भाइयों को विशल्य किया , अगद किया । सुपर्ण वैनतेय के स्पर्श करते ही उनके घाव भर गए । राम ने लक्ष्मण को अंक में भर लिया । वानर यूथपतियों को भी गरुड़ ने विशल्य किया , अगद किया। राम और लक्ष्मण सहित सब यूथपतियों को विशल्य , नीरुज देख वानर हर्ष - गर्जना
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