दण्ड - नीति का उपयोग करना चाहिए । जो असावधान हो , दैवी प्रकोप से पीड़ित हो , ऐसे ही पुरुष पर विचारपूर्वक किया गया बल - प्रयोग उपयोगी सिद्ध होता है। परन्तु राम असावधान नहीं है। वह विजय की कामना से आ रहा है । उसके पास सेना भी यथेष्ट है । वह स्वयं अजेय और पराक्रमी है । विशाल दुर्लंघ्य समुद्र को लांघने वाले रामदूत हनुमान् ही के पौरुष पर आप विचार कीजिए । ऐसे - ऐसे न जाने कितने असम साहसी वीर उसकी सेवा में हैं । इसलिए महाराज , हमें राम के बल की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और विशालकाय महा - उत्पात करने वाले वानर जब तक लंका से दूर हैं , तब तक आप इस विशाल नागिन सीता को लौटा दीजिए । इसी में राक्षस कुल की भलाई है। आप अकारण की रार को टाल दीजिए। " विभीषण के ये वचन सुन मेघनाद ने वीरदर्प से कहा - “ हे पितृव्य , भीरु पुरुषों के समान यह आप क्या कह रहे हैं ? नीच - कुलोत्पन्न प्राणी भी ऐसे भीरु वचन नहीं कहता आप तो प्रतापी पौलस्त्य हैं , जिनका वीर्य जग-विख्यात है । भला कहीं मानव और पशु भी हम राक्षसों की समता कर सकते हैं ! मैंने त्रिलोकपति इन्द्र को बन्दी बनाया , ऐरावत को दांत पकड़कर पृथ्वी पर पछाड़ दिया । सो हमें देवता और दानव किसी का भय नहीं है । इस राज्य - भ्रष्ट भिखारी राम की भला क्या बिसात है ? " विभीषण ने कहा - “ पुत्र , तु , शस्त्रधारियों में मूर्धन्य है । हमारे कुल का शिरोमणि है । अमितविक्रम है, परन्तु तेरी आयु के समान तेरी बुद्धि भी अभी परिपक्व नहीं है । तू हिताहित और कर्तव्याकर्तव्य पर विचार नहीं कर सकता । जो वचन तूने कहे हैं इनसे रक्षकुल का अनिष्ट ही होगा । तू बाल - बुद्धि से यह कह रहा है और कालरूप , यमदण्ड के समान भयंकर उस दाशरथि के पराक्रम से अपरिचित है । मेरी यह निश्चित सम्मति है कि दाशरथि राम की पत्नी सीता को धन - रत्न , आभूषण - वस्त्र और विभिन्न मणियों सहित राम को भेंट कर रक्षेन्द्र इस आसन्न संकट को टाल दें तथा आनन्द से निर्भय लंका का साम्राज्य भोगें । " विभीषण के इन वचनों से रावण क्रुद्ध हो गया । उसने कहा - “ अरे भ्राता , शत्रु और सर्प के साथ रहना तो फिर भी निरापद है, परन्तु शत्रु पक्षपाती बन्धु के साथ रहना अत्यन्त भयानक है । मैं जानता हूं कि हमारे विमलयश रक्षकुल में कुछ ऐसे कुल - कलंक हैं जो रक्षकुल पर विपत्ति आने पर प्रसन्न हो सकते हैं । वे अपने ही कुल का तिरस्कार करते हैं । ऐसे ही दुरात्मा तुम भी हो । तुम जैसे कुलद्रोही से तो भय ही है । तुम शत्रु के प्रशंसक और कुल के निन्दक हो । यह जातिभय सब भयों से भयानक है। आज जो अखिल विश्व में मेरी विजय वैजयन्ती फहरा रही है , मेरे नाम का डंका बज रहा है , मैंने जो विश्व के कुलीनों और ऐश्वर्यवानों का सम्मुख समर में पराभव करके जगज्जयी की पदवी प्राप्त की है, वह सब तुझे नहीं सुहाती । तू ईर्ष्यालु और दुरात्मा है। जैसे हाथी स्नान के बाद धूल उछालकर अपने शरीर को मैला कर लेता है , वैसे ही तू भी कुल - कलंक है । तुझ कुल -निन्दक को मृत्युदण्ड देना उचित है । परन्तु तू मेरा सहोदर भाई है, मैं तुझे केवल धिक्कार सहित त्याज्य घोषित करता हूं। तू राक्षसों की लंका तथा यशस्वी रक्षकुल को त्यागकर अभी यहां से निकल , यही तेरे लिए राजाज्ञा है। " । विभीषण ने शान्त वाणी से कहा - “रक्षेन्द्र, आप पितृतुल्य मेरे ज्येष्ठ भ्राता और रक्षपति हैं , इससे मैं आपकी आज्ञा मानकर अभी लंका को त्यागता हूं । अधर्म - प्रवृत्ति होने से
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