अन्तत : मैं महिदेव सर्वजयी वैश्रवण पौलस्त्य हूं । मर्यादा के विपरीत भी तो मैं नहीं कर सकता। उस भिखारी राम को मुझे क्या भय है ! वह साधनहीन है । वह क्या यहां लंका तक आने की मूर्खता करेगा ? वह तो इस उद्योग में ही नष्ट हो जाएगा । यह दुस्तर सागर , यह दुर्लंघ्य लंका और ये अजेय राक्षस भट , इनके सम्मुख उस एकाकी मानव की क्या बिसात ! पर वह अकेला वानर ही जब यहां आकर इस अत्यन्त सुरक्षित लंका में इतना उत्पात मचा गया , तो फिर यह भी नहीं कहा जा सकता कि राम को यहां तक आने में सफलता नहीं मिलेगी । कार्य- सिद्धि के साधन अकल्पनीय हुआ करते हैं । इन सब विचारों ने रावण को अस्थिर कर दिया । सहस्रों सुन्दरियों तथा भोग सामग्रियों से परिपूर्ण उसका मणिमहालय अब उसके अशान्त और उद्विग्न मन को प्रसन्न न कर सका । नृत्य , पान और विहार से उसकी रुचि खिन्न हो गई । हनुमान् का असम पराक्रम और राम की भीति एक अशुभ छाया के समान उस महाप्रतापी वैश्रवण रावण के सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर छा गई । उसने अपने विश्वासी अमात्य महापाश्र्व को बुलाकर परामर्श किया । महापाश्र्व ने करबद्ध निवेदन किया - “ देव , हिंस्र वन्य जन्तुओं से परिपूर्ण वन -प्रदेश में जाकर जो पुरुष मधु पाकर भी उसका सेवन न करे , उसे पान करने को विकल न रहे , उसे मूर्ख ही समझना चाहिए । आप जगज्जयी हैं , महिदेव हैं , पृथ्वी के स्वामियों के स्वामी हैं । आप ईश्वर हैं , क्यों नहीं आप इस शत्रु - पत्नी सीता के साथ बलात्कार से रमण करते ? जिस प्रकार कुक्कुट झपटकर मादा को दबोचकर रमण करता है, आप भी उसी प्रकार अपनी इच्छापूर्ति कीजिए । इच्छापूर्ति के बाद फिर भय क्या है? शत्रु - पत्नी दूषित होने पर फिर भला राम उसका क्या करेगा ? इसके अतिरिक्त यदि किसी भी प्रकार का भय उपस्थित हुआ ही तो उसका उचित प्रतिकार किया जाएगा । आप चिन्तित न हों , महाबली कुम्भकर्ण और तेजस्वी इन्द्रजित् आपकी सेवा में उपस्थित हैं ? फिर लंका में जो सहस्रावधि भट हैं । वे किस दिन के लिए हैं ? हम तो देवराट को भी कुछ नहीं समझते । यहां आपका शत्रु आया भी तो हम उसे देखते ही मार डालेंगे। आप निश्चिन्त रहिए। " मन्त्री महापाश्र्व के ऐसे अनुकूल वचन सुनकर रावण प्रसन्न तो हुआ , परन्तु उसने कहा - “ मैं महिदेव हूं , जगज्जयी हूं , विश्व के दुर्लभ भोगों का अधिपति हूं। देव , दैत्य , दानव सभी ने अपनी कन्याएं मुझे सादर अर्पित की हैं । बहुत नाग , दैत्य , यक्ष - सुन्दरियों का मैंने हरण किया है । वे सब मेरी शय्या पर आना अपना परम सौभाग्य मानती हैं । सभी मेरा अभिनन्दन करती हैं , सभी का मैं स्वामी के समान उपभोग करता हूं । फिर क्या कारण है कि यह एक मानवी स्त्री मेरा तिरस्कार करे ? बलात्कार करने से सौन्दर्य का रस क्या प्राप्त होगा ? अरे , स्त्री जब तक स्वेच्छा से तन - मन पुरुष को अर्पण न करे, तब तक उस स्त्री का आनन्द क्या ? यह मानवी मेरे समस्त ऐश्वर्य का तिरस्कार करती है, मेरी मर्यादा का विचार नहीं करती, मुझ जगज्जयी से उस भिखारी राम को श्रेष्ठ समझती है। मैं यह कैसे सहन कर सकता हूं ? फिर वह शत्रु - पत्नी है। उस मानव ने मेरी बहन का तिरस्कार किया है । अब , उसकी स्त्री मैंने अपने कौशल से हरण की है तो उस पर मेरा ही अधिकार है । वह मेरी शय्या पर प्रसन्नता से आए, मुझे अपना तन - मन अर्पण करे, तभी उसके पति राम के दुष्कर्म का प्रतिकार हो । पशु की भांति बलात्कार से तो मेरी ही मर्यादा भंग होगी । भला पृथ्वी की
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