बिल्व , मधूक, आम, पाटल , अर्जुन , शिंशपा आदि समस्त लताद्रुमों को देख वानरों का यूथ आनन्द से कोलाहल करने लगा । कुछ चक्रवाक , जलकुक्कुट, क्रौंच आदि पक्षियों से युक्त सरोवरों में जलक्रीड़ा करने लगे । इस प्रकार श्रम दूरकर वानर सैन्य आगे चलकर महेन्द्रगिरि पर जा पहुंची। वहां से उसने प्रथम बार उस अथाह समुद्र के दर्शन किए। फिर पर्वत से उतर , समुद्र- तटीय वन में आ , वानरी कटक ने सन्निवेश स्थापित किया । समुद्र- तट पर पड़ाव डाले यह विशाल सेना दूसरे समुद्र के समान जान पड़ती थी । उसके कोलाहल ने समुद्र - गर्जन की गम्भीर ध्वनि को भी अपने में लीन कर लिया था । योग्यतम सेनापति सुग्रीव की अध्यक्षता में वानरी सेना तीन विभागों में विभक्त करके ठहराई गई । समुद - तट पर आकर वायु की प्रेरणा से उठी हुई उन उत्ताल तरंगों को देखकर वानर बड़े प्रसन्न हो रहे थे। जहां तक दृष्टि जाती थी , जल - ही - जल दीख पड़ता था । समुद्र के बीच में कहीं भी भूमि नहीं दीख पड़ती थी । विशालकाय जल- जीवों से भरा यह समुद्र फेन के कारण हंसता तथा उत्ताल तरंगों के कारण नाचता - सा दीख रहा था । उसमें प्रदीप्त फनों वाले सर्प ,विशालकाय तिमिंगिल आदि जलचर और स्थान- स्थान पर पाषाण-शिलाएं दिखाई दे रही थीं । वह अगाध जलधि सर्वथा दुर्गम था । दूसरा तट न दीखने के कारण समुद्र और आकाश परस्पर मिले हुए जान पड़ते थे । असंख्य रत्नों से युक्त समुद्र और असंख्य तारागणों से व्याप्त आकाश में कोई अन्तर नहीं रह गया था । समुद्र में उठनेवाली भयंकर लहरें आपस में टकराकर जो गम्भीर शब्द करती थी , वह आकाश में बजते हुए नगाड़ों की - सी ध्वनि मालूम पड़ रहा था । वायुवेग के कारण उस समुद्र में इस समय बड़ा कोलाहल मचा हुआ था । बड़ी - बड़ी लहरें उठकर परस्पर टकरा रही थीं । इन लहरों के कारण चंचल और उद्वेलायमान होते हुए समुद्र का वह दृश्य देख वानर - दल चकित हो रहा था । अपनी रक्षा में भली - भांति सावधान वानर - सेना को नील ने बड़े कौशल के साथ समुद्र के उत्तर तट पर ठहरा दिया । उसकी रक्षा के लिए द्विविद और मैन्द वीर यूथपतियों को उनके यूथसहित नियुक्त किया । यूथपतियों को कठिन आदेश दिया कि वे अपने यूथ से पृथक न हों । संदिग्ध पुरुष को शिविर में प्रविष्ट न होने दें । अपने- अपने यूथ की सजग होकर रक्षा करें ।
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