पालन करने में आप पृथ्वी में सब देव , दैत्य , असुर, नाग जनों में अद्वितीय हैं । इसलिए आप के द्वारा इस दूत को मृत्यु - दण्ड देना उचित नहीं है । " तब मंत्री प्रहस्त ने हाथ बांध विभीषण के समर्थन में कहा - “ महिदेव , प्राणदण्ड का भागी वह शत्रु है, जिसने इस तुच्छ को यहां भेजा है । मारने से अपयश ही प्राप्त होगा । यह शत्रु का सेवक है । अत : उन्हीं के हित की बात सोचना इसका धर्म है । यह पराधीन है , इसलिए भी अवध्य है । यह जाकर आपके शत्रु उन दोनों उद्दण्ड भाइयों को प्रेरित कर यहां ले आए। आप देव - दैत्य सभी से अपराजेय हैं । लंका के महाबली राक्षस युद्ध के लिए उत्सुक हैं । इसलिए इस क्षुद्र दूत का वध कर लंका के सुभटों को आप निराश मत कीजिए। " । रावण विभीषण और मंत्रियों के वचन सुनकर बोला - “ अच्छा, यदि यह अवध्य है तो मेरी आज्ञा से इस दुरात्मा को बांधकर अपमानपूर्वक लंका की गली -गली और राजमार्ग चतुष्पथों पर घुमाया जाए। पीछे उसके हाथ में बहुत - सा वस्त्र लपेट , उसे तेल में भिगो तथा उसमें आग लगाकर इसे लंका से बाहर निकाल दिया जाए । ” रावण की इस आज्ञा का तुरन्त पालन हुआ । हनुमान को इससे अपार लाभ हुआ । लंका के सब घर - घाट उन्होंने देख लिए । वन , वीथी , राजमार्ग, हर्म्य, दुर्ग, परिधि भी उन्होंने नजर में तोल लिए । मन - ही - मन वे भावी युद्ध की योजना बना, कहां कौन स्थान किस उपयोग में आ सकता है, यह निर्णय करने लगे । राक्षस कोलाहल करते , उनका तिरस्कार करते , चीखते -चिल्लाते , लात -मुक्कों से उन्हें मारते - धकेलते , नगर में घुमाने लगे । उनके साथ शंख, घड़ियाल और भेरी थीं , जिन्हें बजा - बजाकर वे उनके अपराध की घोषणा कर रहे थे । इसे सुन सब नागर , राक्षस , स्त्री - पुरुष इस एकाकी अमित पराक्रमशील वानर को देखने झुण्ड बांधे ठौर -ठौर एकत्र होते जाते थे। दिन - भर उन्हें घुमाया गया । सन्ध्या होने पर उनके दोनों हाथों को वस्त्र से लपेट और तेल से तर करके , उनमें आग लगा, उन्हें लंका से बाहर फेंक दिया गया । हनुमान् ने तुरन्त ही अपने हाथों को मुक्त किया । अदूरदर्शी राक्षसों ने फिर उसकी ओर ध्यान ही नहीं दिया । इसके बाद वे सावधानी से फिर लंका में प्रविष्ट हो गए । फिर वे छिपते हुए धीरे - धीरे रावण के मणिमहल की ड्योढ़ियों में पहुंच छद्मवेश में हर्म्य में घुस गए। उनके पास तेल से भीगा हुआ ज्वलनशील बहुत - सा वस्त्र था जो राक्षसों ने उनके हाथों में लपेट दिया था । अब अकस्मात् उनके मन में एक भीषण विचार आया । उसी को एक उपयुक्त स्थान में रख और उसके निकट बहुत - सा काष्ठ एकत्र कर उन्होंने उसमें आग लगा दी और जब मणिमहल के निवासी प्रथम प्रहर की मद- मूर्छित निद्रा का आनन्द ले रहे थे , आग की लपटों ने अनायास ही मणिमहल को घेर लिया । शीघ्र ही अनुकूल वायु पाकर आग की लपटें आकाश को छूने लगीं । महालय में भगदड़ मच गई । कहीं कुछ भी व्यवस्था न रही । सर्वत्र आग- ही - आग थी । उसी भगदड़ और कोलाहल में हनुमान् वहां से अन्तर्धान हो बाहर निकल आए। उन्होंने देखा, लंका के जन मणिमहल की ओर दौड़ रहे हैं । तब वे एक दूसरे महल में घुस गए । यह महल मन्त्री सारण का था । वहां भी उन्होंने उसी कौशल से आग लगा दी । धीरे - धीरे एक के बाद दूसरा महल , हर्म्य, सौध , अट्टालिका में आग फैलती चली गई। वायु का अनुकूल झोंका खाकर वह उमड़ चली। हनुमान के उद्योग का अन्त न था । वे एक के बाद दूसरे घर अग्न्याधान करते हुए अन्तर्धान हो जाते । प्रहस्त , महापाव, वज्रदंष्ट्र ,
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