या इलोहिम का अर्थ है इलावत के उपास्य देव - वरुण । शातपथब्राह्मण में और जैनेसिस के इतिहास में समान रूप से कहा गया है कि वरुणदेव ने पृथ्वी और आकाश को सम किया । वरुण ने प्रलय के रुके हुए जलों को समुद्र से नहरें खुदवाकर बहा दिया समुद्रों की सीमा बांधी - जल को अधिकार में किया पृथ्वी को सूखी, नम और उपजाऊ बनाकर उसमें बीज बोए। इसी से वरुण को जल का देव कहते हैं । उन दिनों अरब और फारस के बीच का सारा इलाका सुषा स्थान कहाता था । इसी को छल देश - चल्डिया कहते थे। वरुण का एक नाम अवेस्ता में उरमज्द भी प्रसिद्ध है । नवीन सृष्टि रचने और देवों का आदित्यों का ज्येष्ठ पुरुष होने से वरुण को ब्रह्मा कहा जाता है, तथा जल का विभाजन करने से नारायण कहा गया । जल को संस्कृत में नीर भी कहते हैं । श्रीनार - क्षीर - सागर -सिरी का समुद्र -पर्शिया की खाड़ी और उरमजसागर का नाम था । मत्स्य पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने ब्रह्माण्ड के अर्थात् अपने राज्य के दो खण्ड किए एक ऊपर का पार्वत्य प्रदेश - खण्ड , दूसरा नीचे का भूमिखण्ड । ऊपर का खण्ड स्वर्ग और नीचे का भूमि कहाया । ठीक इसी पुराण के अनुसार ही , जैनेसिस आदि पाश्चात्य पुराण - शास्त्री भी कहते हैं । वरुण या अवेस्ता में ब्रह्मा को उरमज्द कहा गया है । यह उर महाध्य का बिगड़ा नाम है जो पुराणों में आया है । पुराणों में ब्रह्म -संकट का उल्लेख है । यह वह घटना है जब ब्रह्मा ने जलों को दो समुद्रों में विभाजित किया । अंग्रेज़ इतिहासकार जैनेसिस कहता है - इलाही ने कहा है कि जल से जल पृथक् होना चाहिए। इसके लिए एक शब्द अंग्रेजी का है Ordeal ; इस शब्द का अर्थ कोश में लिखा है -जल और अग्नि की परीक्षा। जैनेसिस कहता है - इलाही ने कहा - स्वर्ग के जलों को एक जगह एकत्र होने दो और शेष पृथ्वी को सूखने दो । प्राचीन ईरानी इतिहासकार और अवेस्ता दोनों ही में स्वीकार किया गया है कि वरुण लोग वरुण को ही सृष्टि का रचयिता मानते हैं । प्राचीन ईरान के कापाडोसिया प्रान्त में इन्द्र और वरुण की शपथ के शिखालेख मिले हैं । वरुण के इस समूचे साम्राज्य का नाम पहले अमरदेश था और सुषा का नाम अमरावती भी था । अब भी वहां के प्राचीन अमरों के वंशधरों की अमरेह जाति बसती है । पीछे मनपत्री इला के नाम पर इस प्रदेश का नाम एलम या इलावर्त हुआ । आजकल यह प्रदेश किरमान इलाका कहाता है : यही सुमेरु सभ्यता का केन्द्र सुमेरु- साम्राज्य था । यह स्थान फारस की खाड़ी के ऊपर है । जैनेसिस ने पर्शिया के इतिहास में इसे शीनार भूमि - शीशतान कहा है। पुराणों में इसे श्रीनगर लिखा है । फारस की खाड़ी ही क्षीर - सागर कहाती थी । जोरास्टर वरुण के उपासक थे। इनके समय में पर्शिया में वरुण ही महाराज, महा उपास्य , देव , विधाता, कहे जाते थे। इसी धर्म को ईरानी लोग अनइटारियानिज़्म कहते थे। । वरुण ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा और भृगु हुए, जो देवर्षि तथा याजक कुलों के संस्थापक हुए। अंगिरापुत्र बृहस्पति देवों के याजक हुए । भृगु को दैत्यपति हिरण्यकश्यप ने अपनी पुत्री दिव्या दी और दानवराज पुलोम ने अपनी पुत्री पौलोमी । दिव्या से भृगु को शुक्र काव्य - उशना प्रसिद्ध पुत्र हुआ , जो दैत्य - दानव - कुल का याजक हुआ । शुक्र का एक पुत्र अत्रि हुआ। उसका पुत्र चन्द्र । चन्द्र प्रसिद्ध चन्द्रवंश का मूल पुरुष हुआ । दूसरा पुत्र त्वष्टा हुआ जिसका पुत्र प्रसिद्ध शिल्पी हुआ । देवों में उसका नाम विश्वकर्मा और दैत्यों में मय प्रसिद्ध
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