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उसकी कांटेदार महापुच्छ थी । उसका विकराल मुख भी एक गुहा के समान था । हनुमान् जब तक संभलें , तब तक उस विकाराल जन्तु ने उन्हें समूचा ही निगल लिया । हनुमान निरुपाय उस महाजन्तु के उदर में पहुंच तथा दर्प से उसका पेट फाड़कर बाहर निकल आए। फिर उन्होंने एक किलकारी भर आकाश में छलांग भरी और दस योजन सागर पार कर लिया । इस प्रकार धैर्य, सूझ , साहस और कौशल से सब विघ्न -बाधाओं को पार कर हनुमान् उस ओर समुद्र - तट पर द्वीप के किनारे जा पहुंचे। वहां तट पर उगे हुए सुन्दर वृक्षों तथा समुद्र में गिरनेवाली नदियों के मुहानों से उसकी शोभा अपूर्व हो रही थी । उन्होंने एक सुरक्षित पर्वत - शृंग पर चढ़ , फल - मूल खा विश्राम किया ।