ने प्रसन्न मन कहा - “ वीरवर , हम सब तुम्हारी मंगल कामना करते हैं । तुम्हारे लौटने तक हम तुम्हारे लिए मंगल - अनुष्ठान करेंगे। वीरवर, तुम गुरुजनों और वृद्धजनों के आशीर्वाद से इस समुद्र के पार जाओगे तथा कार्य सिद्ध करोगे , ऐसा हमारा विश्वास है। तुम्हारा यह दु: सह कार्य पृथ्वी में जब तक नृवंश है , अप्रतिम रहेगा। संसार का कोई प्राणी कभी भी तुम्हारे इस पराक्रम की क्षमता न कर सकेगा। अब तुम इस महेन्द्र पर्वत के शिखर पर चढ़ जाओ और वहीं से छलांग मारो। " यह सुनकर धीरगति से हनुमान् पर्वत - शृंग पर चढ़ गए । गन्धर्व, यक्ष , रक्ष , वानर सभी हतचेत - से खड़े हो मारुति के इस असह विक्रम को देखने लगे। सिंह के समान अमित विक्रम मारुति गिरिशृंग पर चढ़ कुम्भक -रेचक द्वारा शरीर को पवनपूरित करने लगे । पवन के भर जाने से उनका वज्रदेह अक्षत और विशाल हो गया । पर्वत - गुहाओं में रहनेवाले तपस्वी और किन्नर भयभीत तथा आश्चर्यान्वित हो अपनी स्त्रियों- सहित इधर - उधर दौड़ने लगे। वायुपुत्र हनुमान् ने अपना शरीर हिला , वज्र गर्जना की , अपनी बलिष्ठ भुजाओं को पर्वत पर जमाया , फिर पीठ की ओर खींचकर अपनी गर्दन और भुजाओं को सिकोड़ लिया । तब उन्होंने नेत्र उठाकर विस्तीर्ण समुद्र पर दृष्टि डाली । प्राणों को हृदय में रोका और एकबारगी ही भयानक छलांग मारी। हनुमान् के शरीर के साथ ही पर्वत - शृंग पर स्थित लता - गुल्म - वृक्ष सभी फल- फूल टहनियां समेत समुद्र में जा गिरे। समुद्र - गर्भ से ऊपर आकर उन्होंने एक बार पीछेफिरकर वानरों के यूथ को देखा , फिर डुबकी ली । इस प्रकार डुबकी लेते -निकलते वे समुद्र में आगे बढ़ने लगे। कभी वे छलांग भरते , कभी समुद्र -तल में घुस जाते, कभी किसी बहती हुई काष्ठपट्टिका या तरुखण्ड का आश्रय लेते , कभी दोनों हाथ आकाश में उठाकर केवल लातों से जल को आंदोलित करते । उनकी आकाश में फैली हुई भुजाएं ऐसी प्रतीत होती थीं , जैसे पर्वत से पांच फनवाले दो सर्प निकल आए हों । उनकी गोल पीले रंग की बड़ी - बड़ी आंखें सूर्य और चन्द्रमा के समान प्रतीत होती थीं । जब मारुति जल पर लातों का आघात करते तब उनकी बगल से निकलती हुई हवा बादल के समान गर्जती थी । जहां - जहां वे आगे बढ़ रहे थे वहां- वहां समुद्र उठती हुई तरंगों तथा फेनों से भर गया । वे अपने वक्ष -स्थल से समुद्र की दुर्गम तरंगों को तोड़ते -फोड़ते वेग से आगे बढ़ रहे थे। उनके वेग और मेघों से उत्पन्न हुई हवा ने समुद्र को भी डांवाडोल कर दिया , जिससे कछुए , मगरमच्छ आदिजलचर जीव व्याकुल होकर इधर - उधर भागने लगे । वे एक - एक छलांग में एक योजन पार कर रहे थे। उस जगह का समुद्र परनाले के समान छिछला था । जलगर्भ में छिपी हुई चट्टानों पर क्षण भर चरण रख विश्राम लेते , फिर आगे कूद जाते । चारों ओर अगम जल , चारों ओर उन्मत्त लहरें , चारों ओर विषम संकट , परन्तु मारुति बढ़े चले जा रहे थे। जब वे वायु में छलांग भरते तो गरुड़ प्रतीत होते थे। उनके वेग के साथ काले -पीले मेघ भी उड़ रहे थे। हनुमान् कभी मेघों में छिप जाते , कभी प्रकट हो जाते । बीच सागर में मैनाक पर्वत की कुछ चोटियां जल -तल को स्पर्श करती देख हनुमान् ने क्षण - भर वहां विश्राम किया और फिर यह कहकर कि रामकाज किए बिना मोहि कहां विश्राम , वे आगे बढ़े। परन्तु इसी क्षण बीच सागर में एक विकराल जीव मुंह फाड़ उन्हें ग्रसने को लपका । उसका पर्वत के समान विशाल वदन था । महासर्प के समान आकृति थी ।
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