जाम्बवान्, सुहोत्र , शरारित , शरगुल्म , गज , गवाक्ष, गवय , वृषभ, द्विविद , उल्कामुख तथा अन्य वीर वानर थे। वे अधोमुख मलय पर्वत होते हुए ताम्रपर्णी नदी को पारकर, समुद्र -तट पर पहुंचे। वहां से महेन्द्र पर्वत पर चढ़े । वहां से पुष्पितक द्वीप में गए। फिर सूर्यवान् , वैद्युत और कंजर पर्वत को पार किया । अन्त में वे नागों की राजधानी भोगपुरी में पहुंचे। उन्होंने बहुविध सीता की खोज की , परन्तु सीता का कुछ भी पता न चला । सभी वानर बहुत हताश हुए । सुग्रीव ने जो अवधि दी थी , वह भी बीत चली । अंगद ने कहा - “ सुग्रीव का कार्य बिना किए लौट जाने से हमारे प्राण नहीं बचेंगे । हमारे पितृव्य सुग्रीव का स्वभाव बहुत ही कठोर है । वह अपराधी को कभी क्षमा नहीं करता । फिर मेरा तो वह पहले ही विरोधी है । श्रीराम के आग्रह ही से उसने मुझे युवराज का पद दिया है । वह सबसे प्रथम मेरे ही प्राण लेगा। " हनुमान् ने कहा - “ युवराज , तुम तो अपने पिता के समान ही वीर हो और वानरराज के अधिपति भी हो । परन्तु इस समय हम सब सुग्रीव ही के अनुगत हैं । सुग्रीव हम पर दयालु हैं , वे धर्मज्ञ हैं । इसलिए हमें यत्न से , जिस कार्य के लिए हम आए हैं , उसे करना चाहिए । " अंगद ने कहा - “ सुग्रीव, कहां का धर्मात्मा है भला ? जिसने अपने बड़े भाई की स्त्री को घर में डाल लिया , भाई का वध करवाया और अपना काम राम से कराकर भी प्रमाद किया , उसे ही तुम धर्मात्मा कहते हो ? मैं तो कभी उस कुटिल के सामने न जाऊंगा। वह निश्चय ही मेरा और तुम्हारा सबका वध करेगा । और मैं तो पहले ही से हताश हूं । मैं किष्किन्धा कदापि नहीं जाऊंगा, यहां अनशन करके प्राण त्यागूंगा । आप सुग्रीव से मेरा प्रणाम कहना और माता रूपा तथा तारा से भी कुशल-प्रणाम कहना । माता तारा को धैर्य बंधाना । वह बेचारी तो मेरे बिना जीवित ही न रहेगी । जो हो , मैंने तो अब प्राण त्यागने का प्रण कर लिया है । ” यह कह अंगद कुशा बिछा भूमि पर मौन होकर बैठ गया । वानरों का एक भी अनुनय -विनय उसने नहीं माना । तब दु: खी होकर सभी वानर हनुमान् सहित अंगद के साथ प्राण देने के विचार से कुशा बिछा -बिछाकर भूमि पर बैठ गए । वानर इस प्रकार मरण की ठान - ठानकर भूमि पर बैठे ही थे कि उन्होंने देखा - एक विशालकाय गृध्र धीरे - धीरे पर्वत से उतर रहा है। वानरों को वहां इस प्रकार बैठे तथा मरण ठान ठानते सुन वह प्रसन्न हुआ। उसने कहा - " बहुत उत्तम सुयोग है, जो - जो व्यक्ति मरता जाएगा , उसका भक्षण मैं करता जाऊंगा। बहुत दिन तक भोजन की चिन्ता मिटी। ” । उसे देख वानरों ने कहा - " हाय - हाय , यह कौन कृतान्त हम जीवितों ही का प्राण लेने यहां उपस्थित हुआ ? हम न सीता का ही पता लगा सके , न स्वामी ही की आज्ञा का पालन कर सके। हमसे तो अधिक भाग्यवान् गृध्रराज जटायु ही है जिन्होंने सीता की प्राणरक्षा के लिए राक्षस के हाथ से प्राण दिए। " वानरों की यह कातरोक्ति सुनकर उस पुरुष ने कहा - “ अरे, यह किसने मेरे भाई जटायु का नाम लिया ? किसने मेरे भाई जटायु का हनन किया ? कहो, मैं जटायु का बड़ा भाई सम्पाति हूं । मैं बहुत वृद्ध हूं । देवासुर - संग्राम में सूर्य से युद्ध करते मेरे दोनों पंख नष्ट हो गए थे। मैं पंखों से रहित , वृद्धावस्था से जर्जर, अपंग , अशक्त यहां अपने पुत्र पाश्र्व के आश्रम में रहता हूं । अब तुम कहो, कौन हो और किस अभिप्राय से यहां प्राण त्यागने का व्रत
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