रात्रि -जागरण से उसके नेत्र घूर्णित हो रहे थे। तारा को देखते ही लक्ष्मण ने धनुष नीचे कर लिया । तारा ने नम्र शब्दों में कहा - “ राजकुमार, आप क्रोध को त्याग दें । सुग्रीव आपका मित्र है, हितैषी है । उसके अपराध को क्षमा कीजिए । आपके उपकार को वह भूल नहीं सकता । परन्तु आपको जानना चाहिए कि कामातुर आदमी धर्म - अर्थ की बात नहीं विचार सकता । इतने दिन दु: ख पाने पर अब वह कामरत हो गया है, इसलिए आप उसे क्षमा कीजिए और मेरे साथ रनवास में पधारिए । " रनवास में जाकर स्वर्ण - शय्या पर सोए तथा दासियों, परिचारिकाओं से सेवित सुग्रीव को मद्य के नशे में मस्त देख , लक्ष्मण ने कहा - “ हे राजन् , जो राजा बली , दयालु, जितेन्द्रिय और सत्यवादी होते हैं , उन्हीं का यश संसार में फैलता है । उपकारी मित्रों से झूठी प्रतिज्ञा करनेवाले के समान अधम और दूसरा कोई नहीं है । सो राजन्, तुम झूठे , कृतघ्न और अनार्य हो । अपना काम करा लेने पर भी तुम अपना प्रण भूल गए । आर्य ने यह नहीं समझा था कि वे एक दुरात्मा को राज दे रहे हैं । अब तुम कहो कि तुम अपना वचन पूरा करते हो या रामचन्द्र अपना बाण धनुष पर चढ़ाएं ! " लक्ष्मण के वचन सुनकर भी सुग्रीव के मुंह से बात न फूटी । तब तारा ने ही कहा - “ राजकुमार, वानरेन्द्र सुगीव न कपटी है, न विश्वासघाती । आप ऐसे कठोर वचन क्यों कहते हैं ? न वह आप लोगों का उपकार ही भूला है । परन्तु हां , काम - पीड़ित है । उसने बहुत कष्ट भोगे हैं , अत : कामोपभोग में उसे समय का ध्यान नहीं रहा । विश्वामित्र ने घृताची के प्रेम में दस वर्ष बीतने पर एक ही की गणना की थी । वही दशा सुग्रीव की है । रूपा और मैं आप ही की कृपा से उसे प्राप्त हुई हैं । वह आपके लिए राजपाट और मुझे तथा अंगद को भी त्याग सकता है । फिर , आप भी इस समय विपन्नावस्था में हैं । आपको मित्रों की सहायता की बहुत आवश्यकता है । आपका काम बिना सुग्रीव की सहायता के नहीं हो सकता । सो सुग्रीव आपकी सहायता के लिए उपस्थित है। " इसी बीच सुग्रीव को भी चैतन्य लाभ हुआ । वह पलंग से कूदकर खड़ा हो गया । लक्ष्मण और तारा की बातें उसने सुन लीं । कामदेव की प्रतीक पुष्पमाला तोड़कर फेंक दी । फिर उसने कहा - “ राजकुमार , श्रीराम ने मेरी गई हुई राज्यश्री मुझे लौटाई है । मैं भला कैसे उसका उपकार भूल सकता हूं ? ” उसने उसी समय हनुमान् को बुलाकर आज्ञा दी कि सब राज्यों - उपराज्यों के वानर और ऋक्षपति अपने - अपने यूथों सहित दस दिन के भीतर यहां राजधानी में आ उपस्थित हों । इस आज्ञा का जो उल्लंघन करेगा उसका वध होगा । इसके बाद वह मंत्रियों और लक्ष्मण सहित पालकियों में बैठ शंखध्वनि के बीच तथा बन्दीजनों द्वारा गुणगान सुनता हुआ राम की सेवा में चला । देखते - ही - देखते चारों ओर से दल -बादल वानरों के यूथ प्रस्रवण पर आकर एकत्रित होने लगे। सुग्रीव ने सेनापति विनत को पूर्व दिशा में , हनुमान् और अंगद को दक्षिण में और अपने श्वसुर सुषेण को पश्चिम में भेजा तथा शतबली को उत्तर दिशा में रवाना किया । सबके साथ हजारों वानरों के यूथ भी गए। इस प्रकार सारी ही पृथ्वी पर सीता की खोज होने लगी । सीता के मिलने की संभावना दक्षिण दिशा में ही थी । इसलिए दक्षिण में जो दल युवराज अंगद की अध्यक्षता में भेजा गया , उसमें महापराक्रमी हनुमान्, नील , अग्निपुत्र ,
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