88. बालि - वध सुग्रीव ने कहा - “ आप जैसा सर्वगुणसम्पन्न मित्र पाकर अब मेरे लिए कुछ भी अलभ्य नहीं रहा । आपके प्रताप से मैं पूजनीय हो गया । दुरात्मा बालि ने मेरी पत्नी को छीन मुझे राज्य से निकाल दिया है और वह सदैव मेरे वध के उपाय करता रहता है । हनुमान् सहित ये चार वानर ही मेरी सेवा में हैं । यह बालि मेरा काल है, उसका अन्त होने पर मेरा दु: ख दूर होगा। " राम ने कहा - “मित्र, तेरे इस भ्रातृ -विग्रह का कारण क्या है ? क्या बालि तेरा सगा ज्येष्ठ भ्राता है ? " " नहीं, उसका पिता इन्द्र है। माता उसे गोद में लेकर पिता की सेवा में आई थी । " “किन्तु ज्येष्ठ तो है ही । " “ इसी से पिता की मृत्यु होने पर मन्त्रियों ने उसी को अभिषिक्त कर दिया था तथा वानर - राज्य की श्रेष्ठ सुन्दरी तारा भी उसे दे दी गई । राज्य और मणि का आनन्द वह भोगने लगा और मैं द्वेषरहित अनुज की भांति उसकी सेवा करने लगा। ” “ यह उचित ही था । " “फिर एक बार उसका पुराना वैरी मायावी दैत्य कहीं से आकर वानर - राज्य में उत्पात करने लगा । तिस पर बालि मुझे संग ले उससे युद्ध करने निकला। परन्तु वह दैत्य विकट वन में छिपकर युद्ध करता रहा, जिससे बालि मुझसे बिछुड़ गया । मैं एक वर्ष तक वन में बालि को खोजता रहा। फिर मैं निराश हो तथा यह समझकर कि बालि को मायावी ने मार डाला है, राजधानी में लौट आया । " __ " स्वाभाविक ही था । " “ तब मन्त्रियों ने मेरा राज्याभिषेक कर दिया , क्योंकि राज्य बिना राजा के नहीं रह सकता था । " “ यथार्थ है । " " तब तारा भी अपने पुत्र अंगद को लेकर मेरी सेवा में आ गई । मैंने उसे अपनी महिषी स्वीकार कर लिया और अंगद को , जो बालि का पुत्र था , अपना ही पुत्र मान लिया। ” “ ऐसा भी होता है । " " परन्तु कुछ काल बाद बालि अकस्मात् राजसभा में आ उपस्थित हुआ और मुझे सिंहासन पर आसीन देख दुर्वचन कहने लगा। मैंने उससे प्रसन्नतापूर्वक छत्र ग्रहण करने की प्रार्थना की तथा सत्य बात भी कह दी । पर बालि का क्रोध शान्त नहीं हुआ । उसने छत्र ग्रहणकर एक वस्त्र मुझे दे राज्य से निकाल दिया और तारा को भी मुझसे छीन लिया । निरुपाय मैं यहां असहाय -विपन्न रहता हूं। "
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