उसे खोज निकालूंगा। ” इतना कहकर राम ने अपनी जटा खोलकर चारों ओर छितरा दीं । ___ इस समय तक बहुत - से जनस्थानवासी ऋषि, मुनि, तापस वहां एकत्र हो गए थे। महामुनि अगस्त्य ने जब राम को क्रोध और शोक से इस प्रकार अभिभूत देखा , तो उन्होंने आगे बढ़कर कहा - “ रामभद्र, आप तो सदा ही सबकी कल्याण- कामना करते हैं ; फिर आप इस समय कैसे क्रोध और शोक से अधीर हो रहे हैं ? हम नहीं जानते वह अपराधी तस्कर कौन है ? किसका धनुष टूटा पड़ा है । यहां अधिक पुरुषों के चरण - चिह्न भी नहीं हैं । देव और गन्धर्वो में कौन आपका अहित चाहता है ? भगवती सीता अवश्य ही किसी एक पुरुष ने हरण की है । अब आप उसे ढूंढ़िए। भला सोचिए तो , जब आप ही अपने ऊपर आए हुए इस दु: ख को धैर्यपूर्वक नहीं सहन करेंगे, तो फिर दूसरे प्राणियों की क्या सामर्थ्य हो सकती है! आपत्तियां तो प्राणियों पर आती ही हैं । ये अग्नि के समान एक क्षण में स्पर्श करती और दूसरे क्षण दूर हो जाती हैं । यह तो संसार का स्वभाव है । भगवती सीता चाहे जीवित हों या पृथ्वी को त्याग चुकी हों , आप दु: ख न कीजिए। हे महाप्रज्ञ , सारा संसार आपका प्रशंसक है , अत : आप धैर्य धारण कीजिए और शत्रु के विनाश का प्रयत्न कीजिए। " इस प्रकार समझा बुझाकर सब तपस्वियों ने अत्यन्त दु:खित हो राम - लक्ष्मण को विदा किया । बहुत जन दूर तक उनके साथ चले । इस प्रकार राम - लक्ष्मण दक्षिण दिशा में आगे बढ़कर क्रौंच - वन में पहुंचे। यह वन बड़ा विशाल और रमणीय था । परन्तु यह वन अत्यन्त सघन था और इसमें अनेक हिंस्र जन्तु रहते थे। यहां एक अत्यन्त गहरी - गुहा थी । इस गुहा में एक अति भयानक राक्षस रहता था । वह बड़ा बलवान् था । इस वन का वही स्वामी था । उसके विकट बल और अतुल सामर्थ्य से दूर - दूर तक लोग आतंकित रहते थे। चलते - चलते एकाएक वह भयानक राक्षस दोनों हाथ फैलाए इन दोनों भाइयों के सम्मुख आ खड़ा हआ और कहने लगा “ धनुष - बाण धारण करने वाले तुम दोनों कौन हो और बिना मेरी अनुमति मेरे इस वन में कैसे आए हो ? तुम सुन्दर हो , तुम्हारे कन्धे बैल के समान हैं , तुम अवश्य ही मानुष प्रतीत होते हो । मैं मानुषों को मार शिश्नदेव को बलि देकर नरबलि का मांस खाता हूं । सो तुम भले मिले। आज मैं तुम्हारी बलि दे तुम्हारा ही स्वादिष्ट मांस खाऊंगा। " ___ उस कद्रूप और विकट राक्षस को देख शोक - जर्जरित और भूख - थकान से क्लान्त राम- लक्ष्मण अत्यन्त भयभीत हो गए। परन्तु लक्ष्मण ने साहस करके खड्ग का प्रहार उसकी फैली हुई भुजाओं पर किया । प्रहार से उसकी एक भुजा कटकर दूर जा गिरी। उस प्रहार से विकल होकर वह लक्ष्मण को पकड़ने दौड़ा । तब अवसर पाकर राम ने उसे सात बाणों से बींध डाला । फिर जब वह पीड़ा से व्याकुल हो राम की ओर मुड़ा तो राम ने फुर्ती से पांच बाण उसके खुले मुख में ठूस दिए, जो उसके तालु को फोड़कर निकल गए, जिससे वह कराहता हुआ भूमि पर गिर गया और दीन भाव से बोला - “ हे वीर , तुम कौन हो ? " राम - लक्ष्मण ने जब अपना संक्षिप्त परिचय दिया तो वह कहने लगा - " मैंने तुम्हारा प्रताप और नाम जनस्थान में सुना था । मैं दनु दानव हूं तथा देवराट् इन्द्र के वज्र - प्रहार से पंगु होकर यहां वन में रहता था । सो आज तुम्हारे हाथ से मेरा अन्त हुआ। किन्तु अब वैर भाव से क्या प्रयोजन है? कहो, मैं तुम्हारा क्या प्रिय करूं ? ” । राक्षस के ये वचन सुनकर राम ने कहा - “मेरी भार्या को कोई तस्कर हर ले गया है ,
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