उनके पास पहुंचा दें और उनकी मित्रता -लाभ कर लें शत्रुता से मित्रता अधिक लाभदायक है । " सीता के वचन सुनकर रावण ने कहा " भद्रे सीता, मैंने तेरे साथ कोई अधर्माचरण नहीं किया । राक्षस - धर्म की मर्यादा के अनुसार ही तेरा हरण किया है, क्योंकि तेरा पति मेरा वैरी है। उसने अकारण मेरी बहन सूर्पनखा का अंग -भंग किया और उसकी रति -याचना की अवज्ञा की , इससे मैंने उसकी स्त्री का हरण कर लिया । इसमें दोष कहां है ? फिर मैं तो तुझ पर अधिक सदय हूं । मैंने तुझसे बलात्कार नहीं किया , तुझसे दासी- कर्म नहीं कराया , तेरा वध भी नहीं किया , न तुझे विक्रय किया , अपितु इस महाहर्म्य में सादर - सयत्न रानी की भांति रखा है और स्वयं मैं विजयी रावण तुझसे प्रणय याचना करता हूं। क्या तू यह भी नहीं सोचती ? " सीता ने कहा - " क्या आपने मेरे पति को युद्ध में जीतकर मेरा हरण किया है ? आपने तो छल करके , भिक्षुक बनकर, चोर की भांति मुझे चुराया है। आपने पुरुष -सिंह राम- लक्ष्मण की अनुपस्थिति में मेरा हरण किया , आपका यह कार्य कितना कलंकित था ! आपका यह कार्य न धर्म - सम्मत है , न वीरोचित । फिर मैं तो आपको स्वीकार करती ही नहीं । मेरे यशस्वी पति राज्य - भ्रष्ट नहीं हैं । उन्होंने तो स्वेच्छा से राज्य त्यागा है , अभी भी वे अवध के स्वामी हैं । अभी भी वे सात अक्षौहिणी सेना के अधिनायक हैं । परन्तु इससे भी क्या ? आर्यपुत्र का बल उनकी सेना में नहीं , उनकी भुजाओं में है । दण्डकारण्य में आपकी बहन ने वह भुजबल देखा है । अब रक्षेन्द्र यदि आपकी सुमति न जगी तो आप देखेंगे कि शत्रु- संहारी मेरे पति मेरे लिए लंका में अवश्य आएंगे । तब आप भले ही कुबेर की अलका में जाकर छिपें , चाहे और कहीं , कोई भी देव , दैत्य , नाग , यक्ष आपको उनके हाथों से बचा न सकेगा। आपकी निश्चय ही मृत्यु होगी । " भगवती सीता से ऐसे कठोर वचन सुनकर रक्षेन्द्र रावण क्रुद्ध हो गया । उसके नेत्र लाल हो गए, नथुनों से बैल की भांति गर्म नि : श्वास छोड़ते हुए उसने कहा - “ भद्रे सीते , तू शत्रु-भार्या है , मेरी हरण की हुई सम्पत्ति है, तूने मेरा ही तिरस्कार किया है । मैंने जो तुझ एक स्त्री को इतना मान दिया , इस पर तूने विचार नहीं किया । इस अपराध में तेरा तुरन्त वध होना चाहिए । परन्तु मैं तुझे एक मास की अवधि देता हूं । इस बीच यदि तू अपना हठ त्याग मेरे अधीन न होगी तो मेरे रसोइए मेरे कलेवे के लिए तेरा वध करेंगे । ” इतना कह और लाल - लाल आंखों से सीता को देखता हुआ रावण अपने मणि -हर्म्य में जा देव , गन्धर्व, दानव और यक्ष- कुमारियों के बीच बैठ मद्यपान और विलास करने लगा । रावण के संकेत से राक्षस- कुमारियों ने सीता को बहुत समझाया , प्रलोभन दिए । धान्यमालिनी एक मुखरा तरुणी थी । वह आंख बचाकर बोली - “ कल्याणि सीते , मैं तेरे ही भले के लिए कहती हूं , महात्मा रावण कुल में वरिष्ठ हैं । महर्षि पुलस्त्य छ: प्रजापतियों में चौथे थे, उनके पुत्र विश्रवा मुनि भी प्रजापति- तुल्य ही हैं , रक्षेन्द्र रावण उन्हीं के पुत्र हैं । उनकी भार्या बनने से बढ़कर सौभाग्य पृथ्वी की किसी स्त्री का क्या हो सकता है ? त्रैलोक्य के अधिपतियों ने अपनी - अपनी पुत्रियां उन्हें दे अपने को धन्य माना है । फिर रक्षेन्द्र तुझ पर तो बहुत प्रसन्न हैं । अब तेरा उस तपस्वी राम से क्या प्रयोजन रहा ? " । हरिजटा ने कहा - “ समय को देखकर ही अनुराग-विराग होता है। फिर जिसके
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