पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३०८

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कि विषय सभी दुस्त्याज्य हैं । अरी, मुझे तो शरीर धारण भी भारभूत हो रहा है और ये दुष्ट भौरे मेरे कर्णपूर में घुसे फूलों पर गूंज रहे हैं । इन्हें तो निवारण करो । वह हार , जो मैंने बड़े प्यार से हृदय पर धारण किया था , अब मेरे शत्रु मनोभाव से मिलकर मुझे दु: ख दे रहा है । भला अब कुशल कहां है ? उज्ज्वल , स्वेद-जल कपोलों से झरकर तथा कज्जल -मिश्रित अश्रुजल से मिलकर ऐसा हो गया है जैसा प्रयाग में गंगा- यमुना का संगम है। कोयल की कूक , मलय - समीर , पुरुषों की सुवास , पुष्पासुध और भौरे - ये पांच अग्नि हैं । सो मैं प्रिय परिरम्भण की लालसा से पंचाग्नि - तप तप रही हूं। " इस प्रकार विरह -विदग्धा नवोढ़ा सुलोचना के निकट पहुंच जब कान्त मेघनाद ने परिरम्भण दिया तो उसके सब ताप दूर हो गए । चिर वरिह के बाद सुखद मिलन हुआ । मेघनाद का आवास प्रमदवन भूलोक का स्वर्ग था , जहां भांति - भांति के सुख- साधन देश देश से संचित थे। वहां सभी ऋतुओं के अनुकूल जीवन -सामग्री थी । ऋतु के अनुकूल पुष्प , फल , विहंग , शीत , उष्ण , ताप को सम रखने के साधन , आहार - पान के विविध आयोजन अप्रतिम थे। वहां बारह सहस्र सुभट राक्षस इन्द्रजित् मेघनाद के हर्म्य की रखवाली करते थे और सात सौ सुन्दरियां दानव - नन्दिनी सुलोचना की परिचर्या करती थीं , जो कुसुम - कोमल भी थीं और वज्रसम कठोर भी । सुलोचना के लिए जो पुष्पहार गूंथती थीं , उसके लिए अति ग्रहण भी कर सकती थीं । इस समय प्रमदवन वसन्त की फुलवारी हो रहा था । सुलोचना ने इन्द्रजित् ऐन्द्राभिषेक - सिक्त लोकोत्तर पृथ्वीजयी वीर पति के स्वागत की भारी तैयारी की थी । अब चिर विरह के बाद वह सुलोचना पति - सान्निध्य में आनन्दविभोर हो गई । उस उत्सुकता ने प्रेमार्द नेत्रों से प्रियदर्शन प्रिय का स्वागत किया । प्रिय के दर्शनमात्र से ही उसकी संताप शान्ति हो गई इस शुभावसर पर उसने सहज भाव से अवनत -शिर हो प्रियतम को प्रणाम किया । नैसर्गिक प्रीति , अप्रतिबन्ध विलास , रति रसायन वयः- तारुण्य , इन सबने मिलकर दोनों को एकीभूत कर दिया : ‘ सदृशजनसमाश्रय : काम :। स्नेह के अतिरेक ने दोनों को धृष्ट बना दिया । वे सौकुमार्य का उल्लंघन कर निर्दय वामाचरण करने लगे, बारम्बार अभिलाषा करने पर भी उनकी तृप्ति नहीं हुई । लज्जा- भाव भी विगलित हो गया । वर्द्धमान राग के कारण हृदय के एकीभूत होने से वस्त्राभरण, भूषा - सज्जा सभी कुछ अस्त -व्यस्त हो गए । ऐसा उनका सुरतोत्सव हुआ। यथोचित रूप हो , यत्तथा अनुराग हो , अमन्द मन्मथ हो , अभिराम यौवन हो , तो जीवन का यथार्थ प्राप्तव्य मिले ही मिले, फिर मन्मथ का अमन्द वेग भी अद्भुत प्रभाव रखता था । जहां अभिनय ही शोभनीय माना जाता है - अश्लीला - चरण ही सम्मान समझा जाता है - नि : शंकता ही जहां सौष्ठव और चांचल्य ही जहां गौरवाधान बन जाता है । जहां अंग का अभेद हो जाता है । स्वदेह और परदेह का विलय करने की इच्छा की तृप्त ही नहीं होती । परिरम्भण परम सुखदाता होता है। लज्जा जहां अवगुण कहाता है। विवेक जहां मूर्खतापूर्ण बन जाता है। जो कामाग्नि आरम्भ ही में धक - धक जलती है , उसकी प्रवृद्धावस्था का वर्णन कैसे किया जाए! यहां न पाण्डित्य काम देता है, न चातुर्य। सुरत रस में निमग्न पुरुष समाधि से भी परागति को प्राप्त होता है। उसका वर्णन अकथ्य है। वहां हास -विलास , चाटु भाव सभी समाप्त हो जाते हैं । वहां तो भगवान कुसुमायुध रतिपति ही का अबाध शासन चलता है । कैसा चमत्कार है, यह मृदुगात लता - कोमलकान्त बाला दृढ़ पुरुष द्वारा आक्रान्त होने पर भी व्यथित नहीं होती