पृष्ठ:वयं रक्षामः.djvu/३०३

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मेरे रक्षकों को मारकर यहां से मेरी अगम्य दुरारोह कामचूड़ामणि गुहा पर आया है। अब तू मर ! " यह सुनकर विकार - रहित हो मेघनाद ने विनम्र वाणी से कहा - “ हे दैत्यवर, मेरा यह शरीर आपके अधीन है । मुझ अपराधी को आप शिक्षा दीजिए। ” मेघनाद के ये विनीत वचन सुन नमुचि ने हंसकर कहा - “ अरे रावणि , मैं भगवान् रुद्र -किंकर तुझे जानता हूं । मैंने देख लिया , तुझमें अभिमान का लेश भी नहीं है । मैं तुझ पर प्रसन्न हूं। मेरे पास से कोई याचक विमुख नहीं जाता। तु मांग , क्या मांगता है ? " तब मेघनाद ने कहा - “ हे दैत्येन्द्र , मुझे सप्त दिव्यौषधि दीजिए । ” नमुचि ने कहा - “ तूने अलभ्य - अदेय वस्तु मांगी है। अरे सौम्य , लोग तो मणि, मुक्ता, अश्व मांगते हैं । परन्तु याचक को मैं विमुख करूं तो मैंने जो बहुत काल से संसार में दान - कीर्ति फैला रखी है, वह नष्ट हो जाएगी। आ , तू सप्त दिव्यौषधि ग्रहण कर ! " इस प्रकार उसने अपनी बारहों पत्नियों , दस सहस्र अश्वों और योद्धाओं सहित रावणि का आतिथ्य कर उसे सातों दिव्यौषधियां दी और कहा - “ ये औषध महाप्रभाव हैं , इनसे तू अजर - अमर हो जाएगा , किन्तु मैं तुझ पर एक और भी अनुग्रह करना चाहता हूं । आ , मैं तुझे एकबन्धकर्ण विद्या देता हूं । इतना कह दैत्यपति नमुचि कवच धारण कर तथा हाथ में नाग -पाश ले खड़ा हो गया और मेघनाद से कहा - “ तू सब दिव्यास्त्रों का प्रयोक्ता अमोघवीर्य योद्धा है। आ , जी भरकर मेरे ऊपर प्रहार कर ! " नमुचि दैत्य की यह आज्ञा पाकर , उसकी पदवन्दना कर मेघनाद ने खड्ग, शूल , मुद्र और विविध दिव्य शस्त्रास्त्रों से दैत्येन्द्र पर प्रहार किया । पर दैत्येन्द्र ने सभी को निष्फल कर मेघनाद को नाग -पाश में बांध लिया । यह चमत्कार देख और मन्त्र - सहित ‘ एक बन्धकर्ण विद्या से अवगत हो मेघनाद बहुत प्रसन्न हुआ तथा दैत्येन्द्र को प्रणाम कर सप्त दिव्यौषधि ले वापस विद्याधर विक्रमशक्ति के पास लौट आया । विक्रमशक्ति ने विधिवत् धातुवेध कर उसमें दिव्यौषधि जीर्ण कर मेघनाद का शरीर वेध किया , अघोरा और रसाङ्कुशी विद्या का रहस्य - मन्त्र बताया ,जिससे मेघनाद अजर - अमर हो गया । अब रुद्र के गण नन्दी ने मेघनाद से कहा - “ अरे रावणि , अब तो तू विश्व के सब मनुष्यों में असह्य, दुर्धर्ष और महातेज हो गया । अब तू मेरा भी अनुग्रह प्राप्त कर । कल फाल्गुन कृष्णपक्ष की महा अष्टमी है । हिमवन्त के दक्षिणांचल पर वलीक शृंग है। वहां कल के दिन एक दिव्य तूणीर उत्पन्न होता है, जिसकी उपलब्धि के लिए वहां बहुत से देव , दैत्य , दानव आते हैं । चल , तू अपने विक्रम से वह दिव्य अक्षय तूणीर प्राप्त कर ! हमारे पास यह कामचारी महापद्म विमान है ही । इससे हम समय पर वहां पहुंच सकते हैं । ” इतना कह और मेघनाद को संग ले गण नन्दी वलीक शिखर पर जा पहुंचा। वहां अनेक देव , दैत्य , दानव , राजाधिराज अपने - अपने वाहनों पर चढ़कर आए थे तथा यज्ञ - वेदी रच -रचकर मन्त्र - पूत आहुतियां दे रहे थे । रावणि मेघनाद ने भी एक वेदी रच, वेदपाठ करते हुए यज्ञ शाकल्य और बलि की विधिवत् आहुति दी , जिसे तत्क्षण अग्नि ने प्रकट हो ग्रहण कर लिया । यह देख वहां आए हुए सभी देव , दानव , दैत्य - पति संदेह और आश्चर्य से मेघनाद की ओर देखकर परस्पर संकेत से पूछने लगे – “ यह कौन रमणीय कुमार है, जिसका प्रताप ऐसा दुर्धर्ष है कि अग्नि ने स्वयं प्रकट हो इसकी बलि ग्रहण की है ? " अभी यह सब हो ही रहा था कि उसी क्षण एक महानाग अकस्मात् पृथ्वी के विवर