दी । फिर कहा- “ अब तू तीन दिन अग्निवास कर , तब मैं तुझे परिवर्तिनी विद्या दूंगा । ” इस पर मेघनाद ने तीन दिन अग्निवास किया । जब वह अग्नि को सह गया तो विद्याधर ने उस पर कालान्त सिद्धि का प्रयोग किया । उसने काकिनी स्त्री का सहवास रखकर गगनतत्त्व बनाया , काकिन्युत्पन्न पुत्र का सद्योविट् वायु , काकिनी पुष्प तेज तथा तत्पुत्र शोणितजलतत्त्व बनाया । काकिनी - पुत्र का सर्वांग पृथ्वी - तत्त्व निश्चित किया। फिर रससिद्ध पुरुष - बीज को जीव संज्ञा दी । अब उसने पुरुष की ऊंचाई के बराबर एक छ : अंगुल मोटे ताम्रकटाह को चतुर्मुख कोष्ठ पर रखकर उसे गोघृत और नरतैल से भर दिया । तदनन्तर सिद्ध- चक्ररच, कुमारी- गुरु- देव का पूजन कर, बलि -मांस अर्पण कर , चारों ओर से बंकनाल द्वारा खदिरांगार प्रज्वलित कर उसे सुतप्त किया । जबनिधूम हो , फेननिर्मुक्ति हुई , तब इस मेघनाद का शरीर उसमें निपेक्षकर , पूर्ववर्णित पृथ्वी, जल , आकाश , वायु , अग्नि, इन पांचों तत्त्वों तथा बीज - जीव का निक्षेप किया , जल - तत्त्व डालते ही वह द्रव रक्तवर्ण हो गया । वायु - तत्त्व में शुभ्रवर्ण, तेज से घनीभूत तथा आकाश- तत्त्व से स्वर्ण- सदृश हो गया और ज्यों ही उसमें जीव प्रक्षेप हुआ, तत्काल हुंकार- ध्वनि करता हुआ मेघनाद का तेजवान् शरीर उसमें से इस प्रकार उठ खड़ा हुआ जैसे प्रत्यूष में भास्कर का उदय होता है। वह दिव्य - तेज , महाकाय , महाबल - पराक्रम , नौ हजार हाथियों का बल धारण करने वाला वज्रह, दिव्य रूपवान् , क्षुत्पिपासा -निर्मुक्त , सब भोगों को भोगने में समर्थ, इच्छा -सिद्ध मेघनाद नव - रूप में विकसित हो गया । उसे इस अद्भुत और नवीन परिवर्तन रूप में देख और परिवर्तिनी विद्या दे. विद्याधर चक्रदण्ड ने उसे कामचारी महापद्म विमान में बैठाकर त्रिकूटाचल पर्वत पर स्थित त्रिकूट पताका नामक पुरी में अपने ज्येष्ठ बन्धु विक्रम - शक्ति के पास भेज दिया । विक्रमशक्ति विद्याधर ने उसे सिद्ध पुरुषों की भांति दिव्य प्रभा से व्याप्त देखकर कहा - “ जब तुझे मेरे भाई चक्रदण्ड ने कामचारी बना ही दिया ; तो अब मैं भी तुझे कामचूड़ामणि सिद्ध से सम्पन्न करूंगा। तू अभी चन्द्रपाद पर्वत की गुहा में जाकर सात दिव्यौषधि सिद्ध कर ला । परन्तु , यह जान कि यह सुकर नहीं है । उस अगम गुहा पर महादैत्य नमुचि का अधिकार है । वह जरा - मरण रहित कामचारी सिद्ध पुरुष है । वह किसी शस्त्रास्त्र से न मारा जा सकता है , न जय किया जा सकता है । परन्तु वह महादानी है । विनय से उसके लिए शत्रुओं को भी कोई पदार्थ अदेय नहीं है। वह निवृत्त - वैर है । उसने तीन बार देवासुर - संग्राम में देवेन्द्र इन्द्र को जय किया है । उस गुहा के तल में नमुचि का हर्म्य है जो देव -दानव सभी के लिए अगम है । वहां अकथ रत्न- मणियां हैं, नमुचि दैत्य की बारह पत्नियां दिव्यौषध के प्रभाव से नमुचि ही के समान जरा - मरण रहित हो उसकी सेवा करती हैं तथा नमुचि के दस सहस्र धनुर्धर और इतने ही अश्व हैं । तू अपने विनय से उसे प्रसन्न कर और वहां से सात दिव्यौषध लेकर मेरे पास आ । ” यह सुनकर मेघनाद एकाकी ही उस दुरूह , दुरारोह , कामचूड़ामणि गिरिशृंग पर चढ़ने लगा । मार्ग में उसे देख अनेक गुह्यक , यक्ष, दैत्य तथा कूष्माण्डक दिव्य शस्त्र ले - लेकर उससे युद्ध करने आए, परन्तु मेघनाद ने अपने दिव्यास्त्रों से बहुतों को मार भगाया , बहुतों को माया - बल से सम्मोहित कर दिया । अन्त में वह गिरिगुहा के द्वार पर आ पहुंचा, उसकी अवाई सुन नमुचि दैत्य खड्गहस्त हो उसके सम्मुख आकर बोला - “ अरे दुराचारी, तू कैसे
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