पूर्व अफगानिस्तान और पामीर तक इन्द्र का राज्य था तथा सम्पूर्ण आर्यावर्त उन्हें देव कहकर उनकी पूजा करता और उन्हें यज्ञ - भाग देता था । उन दिनों यज्ञ कोरे धर्मानुष्ठान न होते थे। वे बड़ा भारी राजनीतिक महत्त्व रखते थे। यज्ञ तभी किए जाते थे जब कोई बड़ी विजय होती थी या कोई बड़ी घटना होती थी । उस यज्ञ में सब समागत समर्थकों , मित्रों तथा आप्तजनों को विनय में प्राप्त धन बांटा जाता था । इसी को यज्ञभाग कहते थे । सुदास इन्द्र के गहरे मित्र थे । दाशराज्ञ -संग्राम में सुदास की जय इन्द्र की सहायता से हुई थी तथा वृत्रघ्न - संग्राम में विजय का सेहरा इन्द्र के सिर सुदास की सहायता से बंधा था । ये तृत्सु वंश के थे तथा इनका राज्य रावी नदी के दोनों तटों पर था । इनके पिता विजवन महान् युद्धकर्ता तो थे पर राजा न थे। सुदास इन्द्र ही की कृपा से राजा हुए थे। बाद में उन्होंने दश राजाओं के युद्ध में जय प्राप्त कर भारी कीर्ति पाई । प्रसिद्ध नरपति त्रसदस्य को भी सुदास ने पराजित किया था । वशिष्ठ और उनके पुत्र पराशर तथा सत्ययात उनके आश्रित ऋषि थे। वशिष्ठ की ही सहायता से सुदास ने माथुर -यादव , आनव - शिवि , गान्धार द्रुह्य, शूरसेन के मत्स्य , रीवा के तुर्वशु अनार्य- वर्जिन , वैकर्ण - भेद आदि सम्मिलित दस राजाओं को युद्ध में पराजित किया था । पीछे वशिष्ठ ही के षड्यन्त्र से कुरुपति सवंत ने सुदास को पराजित करके मार डाला । इस प्रकार सुदास के मरने पर भारत में इन्द्र का प्रभाव बहुत कम हो गया तथा सुदास का राज्य और वंश ही नष्ट हो गया । दिवोदास , जिन्होंने सुदास को गोद लिया था , संभवत : इस समय तक मर चुके थे। वे दशरथ के मित्र और सहायक थे और संभवतः उन्हीं के कारण दशरथ की इन्द्र से भी मैत्री हुई थी । इन्हीं दिवोदास की बहन अहल्या थी जो गौतम के पुत्र शरद्वत को ब्याही थी तथा जिसे इन्द्र से व्यभिचार करने के अपराध में गौतम शरद्वत ने त्याग दिया था और राम ने जिसका उद्धार किया था । इसी अहल्या के पुत्र शतानन्द थे जो जनक सीरध्वव के पुरोहित थे। काशी में इस समय प्रतर्दन राज्य कर रहा था जिसके आश्रित भरद्वाज रहे थे तथा जिसने हैहय वीतिहव्य को पराजित किया था । बाद में पराजित होने पर वीतिहव्य भरद्वाज ही के आश्रम में प्रयाग में रहने लगे थे। प्रतर्दन के पौत्र अलर्क पर अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा की कृपा थी । इस प्रकार जिस समय रावण ने देवलोक पर आक्रमण करके देवराट को पराजित कर बन्दी बनाया , उस समय इन्द्र का राज्य-विस्तार तो अवश्य ही बहुत था , परन्तु उसकी शक्ति खोखली हो गई थी । यही कारण था कि इन्द्र को पराभूत होना पड़ा और इन्द्रजित् मेघनाद उसे बांधकर लंका ले गया । इससे देवलोक में बड़ी गड़बड़ी फैल गई । उस समय सब प्रमुख वारुणेय और आदित्य , वसु, रुद्र मिलकर लंका में पहुंचे और रावण से इन्द्र की मुक्ति याचना की । रावण ने देवों के साथ यह शर्त रखी कि देव लोग राक्षसों को भी देवता समझें , उन्हें अमरत्व दें तथा रक्ष- संस्कृति स्वीकार करें , जिससे सब देव , दैत्य , दानव और राक्षस आर्यों से मिलकर एक ही महाजाति हो जाएं और उनके विग्रह शान्त हो जाएं । परन्तु बहुत वाद-विवाद के बाद भी यह सम्भव नहीं हुआ । अन्त में यह तय हुआ कि राक्षस भी यज्ञ के अधिकारी मान लिए जाएं । जब इन्द्रजित् मेघनाद युद्ध में आए तो देवराट् उसको अपना रथ भेजकर उसकी अभ्यर्थना करें तथा कभी भी राक्षसों के विरुद्ध शस्त्र न उठाएं । निरुपाय देवों ने रावण की शर्ते स्वीकार कर लीं । शर्तों की स्वीकृति की साक्षी के लिए लंका में देवों , दैत्यों , दानवों और नागों के प्रतिनिधियों को बुलाया गया और इन्द्र-मोचन की तैयारियां
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