83. इन्द्र मोचन अब यहां हम फिर प्राचीन घटनाओं की चर्चा करेंगे। पाठक जानते हैं कि दैत्य , आदित्य , देव , दानव और नाग सब परस्पर दायाद- बान्धव थे। एक पिता से भिन्न -भिन्न माताओं की सन्तान थे। वे माताएं भी परस्पर सगी बहनें थीं । तब मातृ- गोत्र प्रचलित था । इसलिए माता ही के नाम पर सन्तानों का वंश- वृक्ष चलता था । इसी से इन सब देव , दैत्य , दानव , नाग आदि की जो वास्तव में भाई और कौम्बिक थे -भिन्न -भिन्न जातियां बन गई थीं । फिर जब उनका विस्तार हुआ - भू - सम्पत्ति और राज्यों के बटवारे का प्रश्न सम्मुख आया , तो आपस में लड़ाई - झगड़े और युद्ध-उत्पात हुए । इस भाईचारे के बंटवारे के प्रश्न को लेकर इन दायाद- बान्धवों में बारह देवासुर - संग्राम हुए , जो बड़े ही दारुण थे। ज्येष्ठ और श्रेष्ठ होने के नाते दैत्य प्रमुख थे । पर आदित्यों का नेता सूर्य -विष्ण आदित्यों को प्रमुख बनाना चाहता था । बाद में इन्द्र ने अपने काल में विष्णु की अभिलाषा को काफी उद्दीप्त किया । उसने सब आदित्यों की एक नई सम्मिलित जाति देवसंज्ञक बना ली , स्वयं देवराट् का पद ग्रहण किया तथा प्राचीन सुषा नगरी को अमरावती नाम दे, आस -पास के इलाके को देव - भूमि कहकर उस पर शासन करने लगा । इन्द्र ने भी निरन्तर दैत्यों और दानवों से युद्ध किए , परन्तु विजय उसकी कभी नहीं हुई। कारण कि देवों के साधन परिमित ही थे । दैत्यों और दानवों का भारी विस्तार और प्रबल बल था । उधर मनु और बुध के इलावर्त त्यागने तथा भारतवर्ष में नवीन आर्य जाति स्थापित करने एवं आर्यावर्त की स्थापना करने से इन्द्र का ध्यान भी इसी ओर गया । सूर्य -विष्णु अब वृद्ध हो चुके थे तथा उनका पुत्र मनु आर्यावर्त में आ बसा था । अत : अब उनकी विशेष प्रवृत्ति इलावर्त में नहीं रह गई थी । वारुणेय सब ऋषि-याजक हो गए थे, अत : वे लड़ाई- झगड़े से दूर ही रहते थे। वे देवों के भी मित्र थे और दैत्य -दानवों के भी । दैत्य -दानवों के याजक और कुलगुरु होने से वारुणेयों का खास प्रभाव था । फिर भी वे दोनों की यथासंभव सहायता करते ही रहते थे। ____ दायाद-बान्धव उसे कहते थे जो राज्य में हिस्सा प्राप्त करने का अधिकारी हो । दायाद का अर्थ पुत्र , कुटुम्बी और सपिण्ड था । देवों के दायाद के हक को दैत्य - दानव अस्वीकार नहीं करते थे। पर देवता अपना विस्तार चाहते थे प्रभुत्व चाहते थे। यही झगड़े की जड़ थी । जब हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु को मार दिया गया और प्रह्लाद से वरुणदेव के सान्निध्य में देवों के कौलकरार हो गए और प्रह्लाद को इन्द्रपद देना भी तय हो गया , तब एक बार देव - भूमि की राज्य - सीमाएं बंध गई थीं । परन्तु महत्त्वाकांक्षी इन्द्र इससे संतुष्ट न था और इसी से उसने सिन्धु नदी पार करके पंचसिन्धु प्रदेश पर आक्रमण किया तथा पात्रघ्न महासंग्राम हुआ । इन्द्र को पंचसिन्धु का सम्राट मान लिया गया । परन्तु इन्द्र पंचसिन्धु में बसा नहीं, इलावर्त लौट गया , पंचसिन्धु में अपना प्रतिनिधि ही छोड़ गया पर त्रिशिरा का वध करने के कारण उसे इलावर्त से भागना पड़ा। सारा देवलोक ही उसका
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