विलाप करके कहने लगे - “ हे भाई, जिस अभिप्राय से कैकेयी ने मुझे यहां वन में भेजा था , वह आज पूरा हो गया । देखो, मेरे देखते - ही - देखते यह दुरात्मा मेरी पत्नी का हरण किए जा रहा है। ” परन्तु लक्ष्मण ने वीर - दर्प से कहा - “ आर्य, कातर न हों , मैं अभी इस दुरात्मा को मारगिराता हूं । ” इतना कह उन्होंने तीखे बाणों से विराध पर निरन्तर प्रहार करने आरम्भ किए। लक्ष्मण के बाणों से विद्ध हो वेदना से व्याकुल वह राक्षस क्रोध से सीता को भूमि पर पटक लक्ष्मण की ओर झपटा । इस पर राम ने बाणों की वर्षा करके उसका अंग छलनी कर दिया । तब वह अपना तेजोमय शूल लेकर इन दोनों भाइयों पर टूट पड़ा और दोनों भाइयों को कमर से पकड़कर कांख में दबा चल दिया । यह देख सीता जोर - जोर से आर्तनाद करने लगी और कहने लगी - “ अरे राक्षस , तू उन्हें छोड़ दे और मुझे ले चल । ” उधर लक्ष्मण ने उसकी बाईं भुजा उखाड़ ली । भुजा टूटते ही लक्ष्मण उसकी पकड़ से छूट गए और तलवार से उस पर वार करने लगे । इसी समय अवसर पाकर राम ने भी अपना छुटकारा कर उसे एक गड्ढे में धकेल दिया तथा उसके कण्ठ पर पैर रखकर खड़े हो गए । लक्ष्मण जल्दी -जल्दी गड्ढे को पत्थर और मिट्टी से भरने लगे और उन्होंने उस दुर्दान्त राक्षस को जीवित ही धरती में गाड़ दिया । इस स्थान के निकट ही शरभंग ऋषि का उपनिवेश था । आवाज सुनकर शरभंग ऋषि बहुत - से तपस्वियों को लेकर आ गए तथा राम - सीता को अपने आश्रम में ले गए । इसी वन में एक और तेजस्वी ऋषि सुतीक्ष्ण रहते थे। उनका आश्रम मन्दाकिनी नदी के तट पर था । सुतीक्ष्ण का आश्रम बहुत बड़ा था । वे बड़े प्रभावशाली थे। वहां से वे राम को अपने आश्रम में ले गए । राम को उनसे बहुत सहायता मिली । उन्होंने उन्हें कुछ अच्छे शस्त्र भी दिए तथा पंचवटी में आश्रम बनाकर रहने की सम्मति दी और वहीं सब तपस्वियों, ऋषियों ने मिलकर दण्डकारण्य के राक्षसों के उन्मूलन की योजना बनाई । इस प्रकार राम कभी इस ऋषि के आश्रम में कुछ दिन रहते , कभी उस ऋषि के आश्रम में तो कभी पंचवटी में अपने आश्रम में रहते । इस तरह रहते हुए उन्हें दस वर्षव्यतीत हो गए । इसी समय सूर्पनखा से उनकी भेंट हुई और खर - दूषण से विग्रह हुआ । अगस्त्य के कारण राक्षस बहुत कुछ दबे हुए रहते थे तथा अवसर पाकर अगस्त्य उन पर आक्रमण करते ही रहते थे। अगस्त्य का राक्षसों पर आतंक भी बहुत था । अगस्त्य का आश्रम एक अच्छा - खासा सैनिक सन्निवेश था । बहुत देव , गन्धर्व, ऋषि अगस्त्य की सेवा में उनके उपनिवेश में रहते , उनकी पूजा करते और उनकी आज्ञा मानते थे। राम के आने से उन्हें अपूर्व बल मिला । अब , जब सूर्पनखा से उनका विग्रह हुआ और खर - दूषण से युद्ध हुआ तो अगस्त्य और सुतीक्ष्ण ऋषि के नेतृत्व में जनस्थान के सभी ऋषियों ने राम की सहायता के लिए युद्ध किया था । राम ने उनकी सहायता से ही जनस्थान को राक्षसों से रहित कर दिया था । उन्हीं के भय से रावण ने राम पर आक्रमण करने का साहस नहीं किया - चोर की भांति सीता को हर ले जाने की योजना बनाई । __ वास्तव में सभी ऋषिगण सशस्त्र रहते तथा युद्ध में धीरतापूर्वक लड़ते थे। आत्मरक्षा में समर्थ हुए बिना जनस्थान तथा दण्डकारण्य में वे रह भी नहीं सकते थे। उनके उपनिवेश भी एक प्रकार के छोटे - से जनपद ही थे, जहां प्रमुख ऋषि का शासन राजा ही की
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