नरपति हैं और आपका वचन अभंग है । ऐसा ही आपने कहा है, तो मैं आपको स्मरण दिलाती हूं कि आपने मेरे साथ यह शर्त करके विवाह किया था कि मेरा ही पुत्र आपकी गद्दी का उत्तराधिकारी होगा । इसके अतिरिक्त देवासुर - संग्राम में आपने मुझे जो वचन दिए थे, वे भी आपके पास धरोहर हैं । अतः अब इस प्रकार आप अपने वचन से उऋण हो जाएं कि मेरा पुत्र भरत राजा हो और राम आज ही वन जाएं और वहां चौदह वर्ष वनवासियों का जीवन व्यतीत करें । " राजा दशरथ कैकेयी के ये वचन सुनते ही मूर्छित होकर धरती पर गिर गए । चेतना आने पर धिक्कार -धिक्कार उच्चारण करते हुए फिर मूर्छित हो गए। परन्तु चैतन्य होकर फिर बोले - “ अरी कुलनाशिनी, तूने यह क्या किया ? तू मेरे मनोरथ को फूलते - फलते देख उसे समूल नष्ट कर रही है! अरी, राम ने तो अपनी माता से भी अधिक सदा तेरी सेवा की है । मैंने तेरे वचन पर विश्वास किया , यह मेरा ही दोष है । देख , मैं दीन की भांति तेरे चरणों पर गिरकर तुझसे भीख मांगता हूं कि तू इस भयानक निश्चय को बदल दे। ” । राजा की ऐसी कातरोक्ति सुनकर रानी ने प्रचण्ड क्रोध करके कहा - “ महाराज , आपको यदि वचन देकर उसका पालन करने में दुःख होता है , तो जाने दीजिए । पर अब तुम पृथ्वी पर धर्मात्मा और सत्यवादी नहीं कहलाओगे । अब तुम्हीं सोच लो कि कैसे इस लज्जा के भार को सहन करोगे? अरे , इससे तो तुम्हारा पवित्र रघुकुल ही कलंकित हो जाएगा । तुम्हारे ही कुल में ऐसे बहुत राजा हुए हैं जिन्होंने प्राण देकर भी वचन का पालन किया है । सो राजन् यदि तुम्हें यश प्रिय नहीं है और तुम अपने वचन से मुकरना चाहते हो तो तुम ऐसा ही करो । परन्तु मैं और मेरे पुत्र तुम्हारे दास बनकर नहीं रहेंगे । मैं तो आज ही विषपान कर प्राण दूंगी और मेरा समर्थ भाई तुमसे मेरा भरपूर शुल्क लेगा । मैं भरत की शपथ खाकर कहती हूं कि मैं किसी भांति किसी दूसरे उपाय से सन्तुष्ट नहीं हो सकती । सो तुम समझ लो । " ऐसे कठोर और निर्मम वचन सुन राजा दशरथ अनेक विधि विलाप करने लगे। उन्होंने कहा - “ दूर देश से जो राजा आए हैं , वे क्या कहेंगे ! अब मैं कैसे उन्हें मुंह दिखा सकता हूं ! अरी , कुछ तो सोच, कुल की प्रतिष्ठा और राम की ओर देख । राम से तेरा इतना विराग क्यों है ? " परन्तु जैसे सूखा काठ मोड़ा नहीं जा सकता , उसी प्रकार कैकेयी पर इन बातों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा । उसने कहा - “ महाराज , आप धर्मात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ हैं । सारा संसार आज तक आपको सत्यप्रतिज्ञ समझता है, सो आज आप उस प्रतिज्ञा को भंग करके कलंकित होना चाहते हैं ! " यह सुन राजा घायल हाथी की भांति भूमि पर गिर गए। वे अनुनय करके कहने लगे - “ लोग कहेंगे , स्त्री के कहने से पुत्र को वन भेज दिया । हाय , मैं पुत्र - रहित ही क्या बुरा था ? अरी रानी, कुछ तो विचार कर , अयोध्या की ओर देख, इस वंश की ओर देख, तु राम ही को राजा होने दे। वशिष्ठ, वामदेव सभी की यही सम्मति है और प्रजा भी यही चाहती है । भरत भी यही पसन्द करेगा , तू हठ न कर! " परन्तु रानी न मानी। महल के बाहर बन्दी - भाट यशोगान कर रहे थे, वाद्य बज रहे थे, गलियों और सड़कों पर चन्दन -केसर छिड़का जा रहा था । ध्वजा - पताकाएं फहरा रही
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