थी । " मन्थरा के इस विष - वमन से कैकेयी का मन फट गया । धीरे- धीरे उसे उसकी सभी बातें ठीक प्रतीत होने लगीं। उसने धीरे -से कहा - " तो अम्ब, तू क्या कहती है कि भरत का हित किस बात में है ? मैं क्या करूं ? “ बस, राम वन को जाए और भरत सिंहासन पर बैठे, यही तू कर । इसी में तेरा और भरत तथा उसकी संतान का हित है । अरी, इन आर्यों के परिवारों में माताओं की क्या मर्यादा है ? ये तो पितृमूलक परिवार हैं । राम के राजा होते ही तेरा और तेरे पुत्र भरत के वंश का तो कहीं पता भी नहीं लगेगा । क्या इसीलिए तेरे पिता ने इस बूढ़े कामुक राजा को दो सौतों पर तुझे दिया था ? क्या तेरे प्रतापी पिता की कुछ मर्यादा ही नहीं है ? क्या तू नहीं जानती कि समूचे पश्चिमी - उत्तरी पंजाब और सुदूरपूर्व प्रदेशों में तेरे पिता और उसके सम्बन्धियों के राज्य फैले हैं ? आर्यावर्त का यह कंटक ही तेरे पिता के सार्वभौम होने में बाधा है । ज्यों ही कोसल की मुख्य गद्दी पर तेरा पुत्र बैठेगा , आर्यावर्त में फिर तेरे ही पिता और पुत्र के वंश का डंका बजेगा। तेरे पुत्र का कुल कितना समृद्ध और लोकविश्रुत होगा , यह तो तनिक विचार ! " __ “ तो अम्ब अब तू ही उपाय कर , जिससे मेरे पुत्र भरत को कोसल का राज्य मिले और राम वन को जाए । बता , अब कैसे हम सफल- मनोरथ होंगे । " मन्थरा ने कहा - " इसमें क्या है ! राजा ने यही वचन देकर तुझे ब्याहा था कि तेरा ही पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी होगा । सो यदि राजा को अपने वचन की चिन्ता नहीं है, तो तेरा भाई आनव- नरेश युधाजित् खड्गहस्त है । इन मानवों को हम समझ लेंगे। किसका सामर्थ्य है जो तेरे वीर भाई से लोहा ले सके ? फिर अभी तो राजा का वचन और तेरा प्यार है । सो तू वस्त्राभरण , अलंकार त्याग, कोप - भवन में जा , मौन हो भूमि में पड़ी रह । इस बूढ़े कामुक राजा की क्या मजाल जो वह तेरे कोप को सहन करे ! फिर तू खुल्लमखुल्ला उसके बचन -भंग का भण्डाफोड़ कर दे। राजा अपने को सत्यप्रतिज्ञ समझता है। वचन -भंग का लांछन सहन नहीं करेगा । यदि करेगा तो उसके सिर पर युधाजित् का खड्ग है ही । किसी को भी तेरा विरोध करने का साहस न होगा । " राजा तेरी बहुत लल्लोपत्तो करेगा, रत्नाभरण देगा , तू सभी को ठुकरा देना । बस यही मांगना - भरत को राज्य और राम को वनवास । भरत के राज्य करने पर प्रजा भरत से प्रेम कर उठेगी और सबको भूल जाएगी । भरत निश्चल होकर राज्य करेंगे और तू भविष्य में कोसल - राजमाता कहाकर पूजित होगी । तेरी सौतें और उनके पुत्र तेरे सेवक होंगे , फिर तू उन पर चाहे जितना अनुग्रह करना। ” “ठीक है धातृमातः, अब मैं तेरी ही बात मानूंगी । कह , मैं क्या करूं ? " " बस , विलम्ब न कर । जैसे मैंने कहा, वैसे ही कर। पर सचेत रह, मतलब से मतलब रख। राजा की बातों में न भूल । "
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