बड़ी ही उपेक्षा से देखा, पर इसने जो बाण मुझे मारा, उसके वेग से अचेत होकर मैं एक योजन दूर फेंका जाकर अथाह जल में जा गिरा । उसने मुझे मारना ही नहीं चाहा , इसी से मैं मरा नहीं । इससे मेरी आपको यह सीख है कि उस पुरुष से वैर मत बढ़ाइए । उसका पुरुषार्थ तो आप जनकपुर में देख ही चुके हैं । जिसने खर - दूषण जैसे राक्षसों, महारथियों के साथ चौदह सहस्र राक्षस - भटों को मार डाला, उसके विक्रम में अब क्या सन्देह रहा ? सो आप यदि इस पुरुष से वैर बढ़ाएंगे, तो बैठे -ठाले आपत्ति में ही फंसेंगे और अन्त में घोर परिश्रम से पाई प्रतिष्ठा तथा सम्भवतः प्राणों से भी हाथ धो बैठेंगे। रक्षेन्द्र , अब और पराई स्त्री का लोभ न कीजिए। आपके अवरोध में अनगिनत स्त्रियां हैं , उन्हीं पर संतोष कीजिए और राक्षसों की जिसमें श्रीवृद्धि हो तथा राक्षसों की मान- प्रतिष्ठा बढ़े, वही कीजिए। मैं आपका शुभचिन्तक हूं , इससे यह भली सीख दे रहा हूं । " ___ मारीच के ये वचन सुनकर रावण ने क्रुद्ध होकर कहा - “ अरे राक्षसकुल - कलंक, कायर, तू मुझे उस पतित एकाकी बहिष्कृत राम दाशरथि से भयभीत करता है । मैं अवश्य उसकी स्त्री का हरण करूंगा। मैंने तुझसे सम्मति नहीं मांगी - अब तू मेरा सचिव नहीं है । क्या तू इतना भी नहीं समझता कि राजा के पूछने पर ही अपना अभिप्राय प्रकट करना चाहिए ? चतुर राजपुरुष तो वह है जो राजा के सम्मुख सदा अनुकूल, मधुर , उत्तम , हितकारी भाषण करे। राजा की बात को काटकर हितकारी बात भी आक्षेपयुक्त भाषा में कही जाए तो वह राजा को मान्य नहीं होती । क्या तू नहीं जानता कि राजा में अग्नि और भय का - सा तेज रहता है! इसलिए उसमें पराक्रम, साम , भेद, दण्ड और प्रसाद सदा विद्यमान रहते हैं । इसी से सदैव राजा का सम्मान और पूजन करना चाहिए । किन्तु तू यह मन्त्री - धर्म भी भूल गया ! मैं राजा हूं , तेरा अतिथि हूं, यह भी विचार तूने नहीं किया तथा कठोर बात कह गया ! अरे , मैं तुझसे अपने कर्तव्य के गुण -दोष नहीं पूछ रहा, केवल सहायता चाहता हूं । तुझे किस प्रकार मेरी सहायता करनी होगी , वह भी सुन । तू स्वर्ण का मृग बनकर राम के आश्रम में इस प्रकार विचरण कर कि वह स्त्री तुझे देख ले , वह स्वर्ण का विचित्र मृग देख अवश्य कौतूहलवश हो , उस मृग को लाने को अपने पति से कहेगी और जब वह आश्रम से तेरा पीछा करेगा , तब तू उसे दूर ले जाना । बस , मैं अपना काम इसी बीच बना लूंगा। मेरा इतना काम करके तू जहां चाहे चला जाना । मैं तुझे यथेष्ठ पुरस्कार दूंगा । यदि तू मेरी आज्ञा का पालन न करेगा तो मैं अवश्य तेरा वध करूंगा। " रावण के ये क्रोधपूर्ण वचन सुनकर मारीच ने कहा - “ मैं बूढ़ा हुआ और अब तपस्वी का जीवन व्यतीत करता हूं । इन प्रपंचों से भला मेरा क्या सम्बन्ध है ! खेद है कि आपके मन्त्री आपको अच्छी सीख नहीं देते और आपकी बुद्धि भी मोह ने कुंठित कर दी है । इस काम में मेरी तो निश्चय ही मृत्यु है , परन्तु आप यदि सीता का हरण करने में सफल भी हो गए तो न आप बचेंगे , न आपकी लंका। आपकी सारी ही श्री - सम्पदा चली जाएगी । आपकी स्थापित रक्ष- संस्कृति की भी समाप्ति हो जाएगी । परन्तु अब इन बातों से क्या ? आप यह घोर कर्म करने पर तुले ही बैठे हैं तो चलिए, मेरे द्वारा आपका कोई प्रिय कार्य हो तो मैं प्राण देकर भी करूंगा। " मारीच के ये वचन सुन रावण प्रसन्न हो गया । उसने कहा - “ यही उचित है। अब तुम मेरे साथ इस रत्नजटित रथ पर बैठ जाओ। मेरा यह कार्य करने पर तुम स्वच्छन्द हो
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