रावण ने चतुराई से मारीच की प्रशंसा करते हुए कहा - “ तात मारीच, मैं तुमसे क्या कहूं? मैं इस समय अत्यन्त दुःखी हूं । तुम्हें ज्ञात है , जनस्थान में खर , दूषण और त्रिशिरा के साथ सूर्पनखा हमारी बहन रहती थी । वहां कोई बहिष्कृत मानव दाशरथि राम अपनी भार्या और भाई सहित आया है । उसने मेरे सब राक्षसों का खर , दूषण सहित वध कर डाला तथा सूर्पनखा का अंग- भंग कर उसे विरूप कर दिया है । यह वही दाशरथि राम प्रतीत होता है, जिसे मैंने जनकपुर में देखा था । उसी ने तुम्हें नैमिषारण्य से वंचित किया । तुम्हारा भी वह चिरशत्रु है । अब सुना है कि उसके पिता ने उसे पत्नी - सहित अपने राज्य से निकाल बाहर किया है, इससे अब वह विपन्न और असहाय है । पर उसने मेरी सेना का संहार किया है । उसने पुरुष -मर्यादा के विपरीत कामाभिलाषिणी सूर्पनखा का अंग - भंग करके उसे अपरूप कर दिया है । इसलिए मैं भी बदला लेने के विचार से उसकी देवबाला सी सुरूपा - सुलक्षणा स्त्री को चुपचाप चुरा ले जाने का मनोरथ करके निकला हूं । अब तुम इस काम में मेरी सहायता करो । पराक्रम में , विरोध में और बदला लेने में तुम्हारे समान पृथ्वी पर कोई नहीं है। तुम्हारे अकेले के पास रहने पर मैं देव , गन्धर्व किसी को कुछ नहीं गिनता । तुम बुद्धिमान् भी बहुत हो । नाना प्रकार के उपाय सोचने में तुम्हें भला कौन पा सकता है! इसलिए तात मारीच, मैं तुम्हारे पास आया हूं । मैंने एक उत्तम योजना बनाई है कि तुम स्वर्ण- मृग का रूप धारण कर उस हतभाग्य तपस्वी की स्त्री की दृष्टि में आओ। वह जरूर ही अपने पति से मृग को पकड़ लाने को कहेगी। बस , दोनों भाई मृग का पीछा करेंगे । उन्हें तुम भटकाकर जरा दूर ले जाना । इसी बीच मैं अवसर पाकर उस स्त्री को चुराकर चल दूंगा । फिर तो दाशरथि राम उसके वियोग में दुःखी होकर दुर्बल हो जाएगा। तब मैं सहज ही उसे मार डालूंगा । " रावण की इन बातों को सुनकर वृद्ध मारीच भयभीत हो रावण के मुख की ओर ताकने लगा । उसका कण्ठ सूख गया , उसके मुंह से बात न निकली। फिर उसने नम्रतापूर्वक रावण से कहा - “ हे रक्षेन्द्र , अभी आपने उस राम को पहचाना नहीं है , तभी आप ऐसा कहते हैं । संसार में प्रिय वचन बोलने वाले बहुत हैं , परन्तु अप्रिय सत्य बोलने वाले विरले ही होते हैं । खेद है कि आप ऐसे तेजस्वी राजा होकर भी गुप्तचर नहीं रखते । आप स्वयं चंचल और अस्थिर चित्त भी हैं । इसी से राम के विक्रम से बेखबर हैं । इसी से यह दुर्बुद्धि आपको सूझी है । कहीं जनकनन्दिनी सीता आपके लिए काल होकर तो नहीं जन्मी है, जो आपने ऐसा विचार किया ? निश्चय जानिए कि यदि आपने ऐसा किया , तो आपकी लंकापुरी , जो स्वर्ण, धन और वैभव में अमरावती से बढ़ - चढ़कर है, मिट्टी में मिल जाएगी। सो राजन , मैं आपके हित की बात कहता हूं कि आप आग को पल्ले में मत बांधिए । चुपचाप लंका लौटकर धर्मपूर्वक प्रजा का पालन कीजिए । _ “ आप मेरा ही उदाहरण लीजिए । अपने बल -विक्रम का मुझे भी कभी गर्व था । तब मैं पर्वताकार शरीर धारण किए पृथ्वी पर विचरण करता था । मुझमें दस हाथियों का बल था । मेरे ही भय से विश्वामित्र दाशरथि राम को नैमिषारण्य लाए थे। उस समय तो उसकी किशोरावस्था थी - अभी तक मैं उस एक वस्त्रधारी सांवले - से तरुण को , जिसकी बड़ी - बड़ी आंखें थीं , नहीं भूला हूं । उसकी शोभा नवोदित बालचन्द्र के समान थी । मुझे तो यह अहंकार था कि मुझे देवता भी नहीं मार सकते । फिर इस दाशरथि को भला क्या समझता ? मैंने इसे
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